अमेरिकी राष्ट्रपति भवन का नाम व्हाइट हाउस रखा जाना क्या रंगभेदी मानसिकता का चरम बिंदु है? – रवि पाराशर

White House on deep blue sky background in Washington DC, USA.
रवि पाराशर

अमेरिका में पुलिस हिरासत में अश्वेत व्यक्ति की मौत के बाद रंगभेद के ख़ात्मे के लिए अब दुनिया भर से आवाज़ें उठने लगी हैं। अच्छी बात है कि इस विरोध में बड़ी संख्या में गोरी चमड़ी वाले भी शामिल हो रहे हैं। अमेरिका में अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के विरोध में भड़की हिंसा की तस्वीरें भले ही अब नज़र नहीं आ रही हों, लेकिन वे तस्वीरें वैसी ही थीं, जैसी फरवरी के आख़िरी हफ्ते में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दिल्ली दौरे के दौरान नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध के नाम पर भड़काई गई हिंसा के दौरान दिखी थीं। दिल्ली में हिंसा का कारण अलग था। हर विचारधारा ने पसंदीदा रंग का चश्मा लगाकर आग की लपटों की भयावहता का विश्लेषण किया। एक फर्क़ यह भी था कि दिल्ली में मौत और संपत्ति के नुकसान का आंकड़ा बहुत ज्यादा था और हिंसा केवल दिल्ली तक ही समटी रही। लेकिन अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में हत्या के विरोध में क़रीब-क़रीब पूरा अमेरिका लपटों में झुलस गया। आग चाहे भारत में लगे, चाहे अमेरिका में या फिर दुनिया के किसी भी हिस्से में, उसकी विकराल लपटों का रंग और धुएं का स्याह दमघोंटू व्यवहार एक जैसा ही रहता है। दिल्ली में फरवरी के अंत में हुई और अमेरिका में जून में हुई हिंसक प्रतिक्रिया में कॉमन यही है कि दोनों जगहों पर राष्ट्रपति ट्रंप ही विरोध के केंद्र में हैं।

अमेरिका में पुलिस हिरासत में मौत के मामले भारत के मुक़ाबले बहुत कम होते हैं, लेकिन नस्लीय वजह से हुई इस निंदनीय हत्या और इसके टाइमिंग के कारण विरोध के भीषण हाहाकारी स्वर पूरी दुनिया के कानों तक पहुंच रहे हैं। यह दुखद घटना अमेरिका जैसे महादेश में हुई है, लिहाज़ा काली चमड़ी वाले जॉर्ज फ्लॉयड की ख़ामोश चीत्कार ने पूरी दुनिया के समानतावादियों को अरसे बाद झकझोर दिया है। ग़ौर करें, तो लगता है कि नस्लभेद या और स्थूल प्रतीक में कहें, तो रंगभेदी प्रवृत्ति मनुष्य का मौलिक अवगुण है। लेकिन सभ्यता के इस अति विकसित बौद्धिक दौर में ऐसे नैसर्गिक भावनात्मक अवगुण को सिर उठाने की इज़ाज़त नहीं दी जा सकती।

भारत और अमेरिका समेत पूरी दुनिया में कहीं भी हिंसक विरोध जिस तरह आम हो गया है, उसके कारणों को देखते हुए कई बड़े सवालों में झांकना ज़रूरी लगता है। हिंसक विरोध का सबसे पहला कारण तो यही लगता है कि शासक अथवा समृद्ध वर्ग ग़लती होने पर भी क्षमा मांगने का भाव प्रदर्शित नहीं करना चाहता। राष्ट्रपति ट्रंप अगर श्वेतों की हिरासत में अश्वेत की हत्या की वारदात के विरोध में तत्काल मुखर हो जाते, तो शायद चिंगारी इतनी नहीं भड़कती। जिस देश में राष्ट्रपति निवास का नाम ही नस्लभेदी प्रवृत्ति का सबसे बड़ा सुबूत हो, वहां व्हाइट सुप्रीमेसी के गुरूर भरे घुटने तले दबकर किसी अश्वेत गर्दन की सांस पहली बार नहीं टूटी है। अमेरिका में कालों से नफ़रत का पुराना इतिहास है।

किसी के साथ अमानवीय बर्ताव होने पर प्रतिक्रिया स्वरूप विरोध की चरम सीमा पर हुई नकारात्मक अभिव्यक्ति क्षणिक तौर पर तो समझ में आ सकती है, लेकिन दुनिया में कहीं भी प्रतिहिंसक विरोध अगर संगठित विचारधारा के स्तर पर होने लगे, तो चिंता की बात है। हिंसक विरोध की प्रतीकात्मक नकारात्मकता को समझने के लिए एक उदाहरण काफ़ी है। महात्मा गांधी के नेतृत्व में जिस समय भारत में असहयोग आंदोलन चरम पर था, तब 5 फरवरी, 1922 को यूपी में गोरखपुर जिले के चौरीचौरा थाने में आग लगाकर 22 पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी गई। ख़बर मिलते ही गांधी जी ने देश भर में आंदोलन वापस ले लिया। कांग्रेस के बहुत से नेताओं ने उनसे अपील की कि सिर्फ़ हिंसा की एक घटना की वजह से उन्हें देशव्यापी आंदोलन वापस नहीं लेना चाहिए, पर अहिंसा को मानवता के उत्थान की अंतिम और खरी कसौटी मानने वाले गांधी जी टस से मस नहीं हुए।

अहिंसा के इतने बड़े विश्वव्यापी प्रयोग और उसकी शक्ति की महत्ता बिना संशय सौ प्रतिशत सिद्ध हो जाने के बावजूद आज के दौर में व्यापक विरोध के हिंसक तौर-तरीकों के विरोध में कहीं कारगर चर्चा नहीं होती, मानो आगज़नी, पथराव, गोलीबारी, ख़ून-ख़राबा ही विरोध का एकमात्र ज़रिया हो। कोई शक़ नहीं कि स्थिति भयावह है। गांधी जी के अहिंसक विरोध ने दुनिया में बड़ी-बड़ी उपलब्धियां हासिल कीं। दुनिया आज ख़ास मौक़ों पर गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व के आगे श्रद्धा से झुकती है। लेकिन ऐसा क्या हुआ कि जब मानवता को असल में बचाने की ज़रूरत होती है, तब भारत के राष्ट्र पिता के तौर पर ही नहीं, विश्व पिता के तौर पर पूज्य बापू के अहिंसक सिद्धांतों के प्रति समाज का समर्पण शून्य सा दिखाई देता है?

वैज्ञानिक रूप से सच है कि मनुष्य की चेतना अपने नितांत प्राकृतिक अल्हड़ रूप में नकारात्मक शक्ति से प्रभावित होती है। यही कारण है कि समाज की संरचना के मूल में खलनायक प्रवृत्ति पहले पैदा होती है। नायक उसके उन्मूलन की प्रक्रिया में बाद में आता है। बेहद सामान्य रूप में हम इस तरह समझें कि आदमी का बच्चा गंदी आदतें सीखने में देर नहीं लगाता। जबकि अच्छी आदतें सिखाने के लिए सख़्त ट्रेनिंग की ज़रूरत पड़ती है। यह मनुष्य की मौलिक प्रवृत्ति है, जिसे प्रतिक्रिया स्वरूप हम अवगुण कहते हैं। असल में यह मनुष्य का मौलिक गुण है।

कहीं ऐसा तो नहीं है कि आज अच्छे विचारों और समाज में उनके प्रभावशाली संप्रेषण के औज़ारों ने चमकीले और तड़क-भड़क भरे माहौल को ही अंतिम सीमा मान लिया है। मार्केटिंग-पैकेजिंग के मौजूदा दौर में अब तार्किक विश्लेषण का समय उपभोक्ताओं के पास अक्सर नहीं होता। किसी चीज़ की ऊपरी तड़क-भड़क देखकर ही लोग आकर्षित होते हैं। छपी हुई ख़बरों के मुक़ाबले दृश्य-श्रव्य माध्यमों यानी स्मार्ट स्क्रीनों पर प्रसारित सामग्री तत्काल आकर्षित और प्रभावित करती हैं। पढ़ने से ज्यादा आसान देखना-सुनना है। यह मनुष्य की प्राकृतिक अवस्था के ज्यादा नज़दीक है। लिपि, व्याकरण, छपाई की तकनीक का विकास मनुष्यता के विकास के बहुत बाद में हुआ। देखना, सुनना और बोलकर अभिव्यक्ति का गुण पैदायशी है। स्मार्ट स्क्रीनों पर हर समय हलचल, उधल-पुथल और कौतूहल भरी तस्वीरें अशांति के माहौल की ही हो सकती हैं। आग के लपलपाते शोलों की तस्वीरें, उन्मादी चीख-पुकार और लाचार आर्तनाद ध्यान अनायास खींचता है। जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या का वीडियो नहीं होता, तो आग इतनी जल्दी नहीं भड़कती। कुछ भी हो, ज्यादातर विरोध आंदोलन बहुत जल्द ही हिंसक होकर सुर्खियों में छा जाते हैं, तो यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है।

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