नहीँ रहे डॉ. गजेंद्र नारायण सिंह

 

 

 

 

 

 

 

शरत सांकृत्यायन

 

पटना। कला के क्षेत्र में अहम योगदान देने वाले पद्मश्री गजेंद्र नारायण सिंह का सोमवार को निधन हो गया। वे पिछले कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे। 78 वर्षीय डॉ. सिंह ने अविभाजित बिहार को कला के क्षेत्र में अपने अथक परिश्रम से अलग पहचान दिलाई। उनके निधन से इस क्षेत्र में जो शून्य पैदा हुआ है वो लंबे समय तक महसूस किया जाएगा। संगीतकार , लेखक, कला इतिहासकार रहे गजेन्द्र बाबू ने भारतीय संगीत और कला जगत पर चार किताबें भी लिखीं हैं। “महफिल” , संगीत के इतिहास पर आधारित एक संदर्भ ग्रंथ है, “स्वर गंध”, संगीत से संबंधित उपाख्यानों और भारतीय संगीतकारों की संक्षिप्त जीवनी पर आधारित है, “कालजयी सुर – पंडित भीमसेन जोशी”, भीमसेन जोशी के जीवन और संगीत पर आधारित है और “सुरिले लोगों की संगत”, जो कुछ उल्लेखनीय हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीतकारों के जीवन और संगीत का विवरण मिलता है। उन्होंने हमेशा संगीत और बिहार के संगीतकारों को बढ़ावा देने का प्रयास किया और बिहार संगीत नाटक अकादमी के मुखिया के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान संगीतकारों के लिए छात्रवृत्ति योजनाएं शुरू की। 2014 में दिल्ली पब्लिक स्कूल, लुधियाना द्वारा प्रकाशित उनकी आत्मकथा, “बिहार की संगीत परम्परा” में उनके जीवन के सभी पहलुओं को संकलित किया गया है। वर्ष 2007 में कला के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए गजेंद्र नारायण सिंह को पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया। वे बिहार संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष भी रहे। गजेंद्र नारायण सिंह मूल रूप से बिहार के सहरसा जिले के धंछोहा गांव के रहने वाले थे। उनका मानना था कि मीडिया, सभ्यता-संस्कृति और धरोहरों का दर्पण है। आज समाज के मनोरंजक पहलुओं को समानता के धागे में बांधने की जरूरत है।

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