कैसे रुकेंगे तेजाबी हमले-संजय स्वामी

बच्चों से बात कौन करता है! किशोर से युवा होती पीढ़ी के मन में क्या चल रहा है, उनके मन की थाह कौन लेता है! आयु के जिस दौर में सर्वाधिक मार्गदर्शन, सहयोग की आवश्यकता होती है, उहापौह के उस संवेदनशील कालखंड में उनका मित्र, हमदम, हमराज कौन होता है? 25 -30 वर्ष पहले तक बड़े परिवार होते थे माता-पिता के सामने शिष्टाचारवश नजरें झुकाने वाले संकोची किशोर-किशोरी हम उम्र चाचा, बुआ से अपने मन की बातें साझा कर लेते थे। संयुक्त परिवार शहरीकरण के दौर में एकल परिवारों में तब्दील होते गये। महानगरों में काम धंधे की भाग-दौड़ में न पिता को फुर्सत है बच्चों संग कुछ पल बिताएं न मां के पास ऊनके लिए समय है। विद्यालय में पाठ्यक्रम के अनावश्यक बोझ में शिक्षक भी यदाकदा ही शिक्षा से इतर बात कर उनकी शांत मुख मुद्रा, भाव भंगिमाओं को पढ़ पाते हैं। ऐसे में ये पीढ़ी अपने दिल की बात करें तो करें किससे?
किशोरावस्था में ऊर्जा का अतिरेक होता है। सर्वाधिक शारीरिक क्षमता के प्रदर्शन की उम्र यही है और वह इसका प्रदर्शन भी चाहता है। सही दिशा मिल जाए तो अभिमन्यु बन जाता है। समर्थ गुरु रामदास के स्नेह, निर्देशन में बाल शिवा छत्रपति बन जाता है। गुरु वशिष्ठ एवं विश्वामित्र के कुशल निर्देशन में बालक राम युगपुरुष पुरुषोत्तम बन जाता है। मात्र तेरह वर्ष की अल्प आयु में ही बालक हकीकत राय सत्य धर्म के लिए झुकता नहीं, शीश दे देता है। किशोरवय अजीत सिंह, जुझार सिंह देश धर्म के लिए युद्धभूमि में वीरत्व का वरण करते हैं। जोरावर सिंह, फतह सिंह कौम की आन बान के लिए जिंदा दीवार में …… हमारा इतिहास वीर बालक बालिकाओं के रोमांचकारी कार्यों से भरा हुआ है। परंतु विडंबना यह है कि ये कथा कहानियां माता-पिता बच्चों को सुनाते नहीं हैं। दादा दादी, नाना नानी तो बच्चों से लगभग दूर हो, होली दिवाली के रह गए है। पाठ्य पुस्तकों से मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार, सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र, गौरा-बादल, छत्रसाल, पंचतंत्र, सुभाषित योजनाबद्ध लुप्त कर दिए गए। वीरता, स्वाभिमान के स्थान पर साहित्य में कायरता, सत्य के स्थान पर छल प्रपंच आ गया, तो तेजाबी घटनाएं क्यों कर न बढ़ेगी? स्वाभिमान आत्म गौरव जगाने वाले उद्धरण के स्थान पर बेतुके कथानक पाठ्यक्रमों में समाहित कर दिए गए हैं। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर त्याग, बलिदान, श्रेष्ठ चरित्र के स्थान पर लैला मजनू, सिरी फरियाद के किस्से जोड़ दिए गए।

किसी देश की शिक्षा उस देश की संस्कृति, परंपराओं, इतिहास का बोध कराने वाली होती है। वहां की प्रगति और प्रकृति के अनुसार होनी चाहिए। अब पाठ्यक्रम से ही वीरता, साहस, स्वाभिमान, जीवन मूल्यों, चारित्रिक गुणों को बढ़ाने वाली पाठ्य सामग्री को हटा धर्मनिरपेक्षता के आलोक में जबरदस्ती जहाँगीर का न्याय समाहित किया गया हो, तो निश्चित है वह किसी भिश्ती का पेट फाड़ेगा या किसी युवती की आंख फ़ोड़ेगा, निर्भया के पेट में कांच की शराब की बोतल या चेहरे पर तेजाब की बौछार करेगा।
पाठ्य पुस्तकों में चरित्र निर्माण की सामग्री नहीं तो शिक्षकों ने भी पाठ्यक्रम पूरा करने की गहमागहमी में विद्यार्थियों को जीवन मूल्यों से अवगत कराना छोड़ दिया। कट्टर देशभक्ति, कट्टर इमानदारी के थोथरे भाषण कहीं तो कट्टरता बढ़ाएंगे ही, चाहे वह अपराध क्षेत्र में ही क्यों न हो। नैतिकता जीवन मूल्यों की शिक्षा न अभिभावक अपने बच्चों को देना- दिलाना चाहते हैं और न सरकार। जब सभी कुछ मुफ्त चाहिए तो उन्मुक्तता, कामुकता, ईर्ष्या, पागलपन कुछ चाहे अनचाहे झेलना ही पड़ेगा और दुर्भाग्य से आज मासूमों को झेलना पड़ रहा है।
अपराधी प्रवृत्ति बढ़ाने में फिल्मों का योगदान भी भरपूर है। फिल्मों ने मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता, नास्तिकता, अपराध, लोभ, प्रतीकों का निरादर, वैमनस्यता परोसी है। डांस और टैलेंट हंट के नाम पर छोटे-छोटे अबोध बच्चों से उत्तेजक फिल्मी गानों पर कामुक भाव भंगिमाओं में नाच करवाते हैं। ज्यूरी के नाम पर लीपे पुते चेहरे वाले भांड मासूम बच्चों से बेतुके, मूर्खता से परिपूर्ण प्रश्न करते हैं। जबरदस्ती उनके गर्लफ्रेंड बॉयफ्रेंड की संख्या पूछते हैं। जबकि वे अबोध इन शब्दों का तात्पर्य भी नही समझते और विडंबना नहीं दुर्भाग्य है कि जिम्मेदार समाज अभिभावक, दर्शक हंसता, ताली बजाता है। जिन मासूम बच्चियों के कोमल शरीर के विशेष अंगों को रियलिटी शो में कैमरे में बार-बार फोकस किया जाता है, सेंसर बोर्ड, निर्णायक मंडल अथवा दर्शक दीर्घा में से कोई विरोध नहीं करता, तो तेजाब फेंकने की घटनाएं कैसे रुकेंगी?
सोए हुए को झकझोरा, जगाया जा सकता है। परंतु नशे में मदमस्त को जागृत करना बहुत मुश्किल है। समाज सब कुछ सरकार से चाहने की अफीम चाट चुका है। अब लत पड़ गई सरकार के भरोसे रहने की,व्यवस्था को दोष देने की, दुर्घटना, आपदा में क्षतिपूर्ति, कुछ लाभ अर्जित करने की।
दोष किसको दे समझ नहीं आता।
आवश्यकता इस बात की है कि समस्या की जड़ को खोजना होगा। निराकरण के तात्कालिक स्थाई उपाय करने होंगे। समाधान शिक्षण संस्थाओं में है। पाठ्य पुस्तकों में समाहित किया जा सकता है। परिवार तथा विद्यालय संस्कारशालाएँ बने, राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी यही कहती है और वर्तमान समय की आवश्यकता भी यही है।
दुर्घटना तो घट गई परंतु भविष्य में पुनरावृति न हो इसके लिए विचार चिंतन तो कर ही सकते हैं। किसी और बच्ची का जीवन नरक न बने, उसकी सादगी, सुंदरता उसके स्वयं के लिए अभिशाप न बने, उसके लिए आवश्यक सावधानियों पर विचार करके, सकारात्मक क्रियान्वयन की दिशा में आगे बढ़ना ही सामाजिक विकास है और विकास की इसी अवधारणा की आवश्यकता है। आधुनिक विद्यालय भवन, सड़कें, महामार्ग बने, अधिक से अधिक रेल, हवाई जहाज चलें सुविधाएं अधिक से अधिक बढ़ती जाए, परंतु मानवीय मूल्यों का ह्रास न हो। व्यक्ति से समाज, समाज से राष्ट्र का चित्र बनता है। इसलिए सर्वाधिक आवश्यक है चरित्र का विकास हो। शिक्षा में सर्वाधिक जोर व्यक्तित्व विकास पर दिया जाना चाहिए। परिवार में बच्चों के लिए खिलौने, आधुनिक गैजेट्स, कंप्यूटर, जींस इन सब के साथ साथ कुछ अच्छे संस्कारों का रोपण हो इसको प्राथमिकता दी जानी चाहिए। परिवार में जिस प्रकार से बहन-भाई, चाचा, बुआ, ताऊ, मौसी आदि इकट्ठे रहते हैं। पारिवारिक अपनत्व, प्यार, स्नेह,आदर सहज दिखता है। वही वातावरण समाज में दिखना चाहिए। और समाज से तात्पर्य किसी एक जाति मजहब संप्रदाय से नहीं है अपितु संपूर्ण समाज से है। सभी धर्म गुरुओं, जात बिरादरी के प्रधानों, सामाजिक संस्थाओं के प्रमुखों को इस दिशा में आगे बढ़ना होगा तथा भावी पीढ़ी को आज ही चेतन शील बनाना होगा।

_ संजय स्वामी
प्रवक्ता ‘राजनीति विज्ञान
राष्ट्रीय संयोजक पर्यावरण
शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास नई दिल्ली

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