दलित हिंसा मामला: सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि एससी-एसटी कानून का हो रहा है दुरुपयोग

लोकतंत्र में विरोध जताने की हक सबको है, लेकिन हिंसा का अधिकार किसी को नहीं है। सरकार या अदालत के किसी फैसले से किसी की असहमति है, तो उसके प्रति अपना विरोध शांतिपूर्ण तरीके से जताया जा सकता है। शांतिपूर्ण प्रदर्शन नागरिकों का संवैधानिक हक है, लेकिन विरोध प्रदर्शन के बहाने हिंसा करना, उपद्रव करना या जानमाल को नुकसान पहुंचाना अपराध है।

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 के निहित गिरफ्तारी के प्रावधान पर सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्देश के बाद प्रदर्शनकारी दलितों ने जिस तरह से हिंसक उत्पात मचाया है और संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है। केंद्र सरकार ने एससी-एसटी एक्ट में किसी बदलाव को लेकर कोई निर्देश नहीं दिया है। सरकार खुद शीर्ष अदालत में पुनर्विचार याचिका दायर की है।

सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि एससी-एसटी कानून का दुरुपयोग हो रहा है। उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने 20 मार्च को दिए अपने आदेश में कहा कि इस अधिनियम के अंतर्गत आरोपियों की गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं है और प्रथमदृष्टया जांच और संबंधित अधिकारियों की अनुमति के बाद ही कठोर कार्रवाई की जा सकती है। यदि प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है तो अग्रिम जमानत देने पर पूरी तरह से प्रतिबंध नहीं है।

एफआईआर दर्ज होने के बाद आरोपी की तत्काल गिरफ्तारी नहीं होगी। इसके पहले आरोपों की डीएसपी स्तर का अधिकारी जांच करेगा। यदि कोई सरकारी कर्मचारी अधिनियम का दुरुपयोग करता है तो उसकी गिरफ्तारी के लिए विभागीय अधिकारी की अनुमति जरूरी होगी। अगर किसी आम आदमी पर इस एक्ट के तहत केस दर्ज होता है, तो उसकी भी गिरफ्तारी तुरंत नहीं होगी।

उसकी गिरफ्तारी के लिए एसपी या एसएसपी से इजाजत लेनी होगी। शीर्ष अदालत के एक्ट के बाबत जो भी निर्देश हैं, वह दुरुपयोग रोकने की दिशा में चेक एंड बैलेंस की एक व्यवस्था भर है। उच्चतम न्यायालय सबके लिए है और कानून की व्याख्या वही करता है। संविधान का बड़ा रक्षक भी शीर्ष अदालत ही है। ऐसे में उसकी मंशा पर किसी को शक नहीं होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने रत्ती भर भी इस कानून को कमजोर नहीं किया है।

बस गिरफ्तारी को लेकर मात्र एक निर्देश दिया है। संविधान की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अनेक बार मिसाल पेश की है। एससी-एसटी एक्ट का अगर कोई दुरुपयोग करे, तो उसे रोकना भी स्वाभाविक न्याय है। लगता है कि प्रदर्शन कर रहे अधिकांश दलित भी सुप्रीम कोर्ट की सदइच्छा से अवगत नहीं हैं। क्या दलितों को भी इस बात पर विमर्श नहीं करना चाहिए कि एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग नहीं हो।

सही मायने में जो अपराधी हों, उन्हें ही कानून के कटघरे तक लाया जाय। देश तो सभी जातियों-धर्मों के लोगों का है। सभी को संविधान से मौलिक अधिकार प्राप्त है, तो इसकी भी रक्षा होनी चाहिए। यह सही है कि देश में दलित समुदाय के लोगों के प्रति छिटफुट अत्याचार की घटनाएं सामने आती हैं। वह निंदनीय है। दलितों के खिलाफ अत्याचार को तत्काल रोका जाना चाहिए।

दलितों को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके नाम पर पार्टियां राजनीतिक रोटियां नहीं सकें। हाल के दिनों में देखना में आया है कि लोग छोटी-छोटी बातों पर सड़क पर हिंसा करने को उतारू हो जाते हैं और देश की संपत्तियों को नुकसान पहुंचाते हैं। देश में कोई भी विरोध प्रदर्शन हो, पार्टियां अपना हित साधने को उसे तूल देने लगती हैं।

मास पॉलिटिक्स की प्रवृत्ति बढ़ने के चलते शांतिपूर्ण विरोध में चिंगारी फूंकने का ट्रेंड बनता जा रहा है। देश के हर मसले को सियासत के चश्मे से देखना न ही देश की शांति के लिए, न ही देश की एकता व अखंडता के लिए और न लोकतंत्र के लिए अच्छा है। देश को हर हाल में हिंसक प्रदर्शनों से बचाने की जरूरत है।

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