बिहार में चुनावी शोर-शराबे के बीच क्यों ख़ामोश हैं शत्रुघ्न सिन्हा?- रवि पाराशर

रवि पाराशर


बिहार में चुनावी गहमा-गहमी बढ़ती जा रही है। गठबंधनों की टोकरियों में चुनावी बर्तन ज़ोर-ज़ोर से खनक रहे हैं, लेकिन बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा कुछ बोल ही नहीं रहे हैं। अप्रैल, 2019 से पहले तो आलम ये था कि उधर नरेंद्र मोदी राहुल गांधी पर नामदार कह कर हमला बोलते, इधर शत्रु बाबू भारतीय जनता पार्टी में रहते हुए भी राहुल गांधी की ढाल बन जाते। नरेंद्र मोदी के बयानों, उनकी कार्यशैली की आलोचना की हिम्मत किसी बीजेपी नेता में उतनी नहीं थी, जितनी शत्रुघ्न सिन्हा में थी। इसकी एक वजह तो शायद यही थी कि उन्हें समझ में आ गया था कि राजनीति के मोदी काल में उनके मनमाफ़िक दाल किसी भी सूरत में नहीं गलने वाली। फिर वे बीजेपी में रहते हुए कई वर्षों तक उलटबासियों में क्यों बहते रहे? फ़िल्मों में कभी ‘ख़ामोश’ डायलॉग बोलकर मशहूर हुए शत्रुघ्न अब ख़ुद पूरी तरह ख़ामोश नज़र आ रहे हैं।
इस प्रश्न का संभावित उत्तर ये हो सकता है कि शत्रुघ्न सिन्हा को उम्मीद रही होगी कि केंद्र और बिहार की राजनीति में उनकी भूमिका सुनिश्चित कर मोदी-शाह सुलह के लिए कभी तो तुमुलनाद करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वैसे शत्रु अगर केंद्र की राजनीति में ख़ुद को फ़िट नहीं कर बिहार की राजनीति में सक्रिय होने का मन बनाते, तो शायद फ़ायदे में रह सकते थे। सियासी गलियारों में आमतौर पर माना जाता है कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी के पास सुशील मोदी के अलावा कोई दूसरा चेहरा प्रोजेक्ट करने के लिए नहीं है। आज के दौर में बीजेपी के लिए ये कड़वी सच्चाई भी है। गिरिराज सिंह, रविशंकर प्रसाद या राजीव प्रताप रूड़ी या उनकी श्रेणी के कई और नेताओं नेताओं का बिहार में ख़ास जनाधार नहीं है। इसलिए उसे बार-बार कहना पड़ रहा है कि नीतीश कुमार ही बिहार में उसके गठबंधन के चेहरे हैं।
शत्रु ने सियासी समझ से काम लिया होता, तो वे बिहार में बीजेपी के चमकदार चेहरे हो सकते थे। लेकिन ये उन्हें गंवारा नहीं हुआ या किसी ने उन्हें समझाया नहीं। वे केंद्र की राजनीति में ही ख़ुद को चमकाने के प्रयास में लगे रहे। लेकिन अप्रैल, 2019 में जबसे शत्रु भारतीय जनता पार्टी का दामन छोड़कर कांग्रेस में गए हैं, तब से ख़ामोश रहना ही उनकी नियति हो गया है। बिहार में विधानसभा 2020 की बिसात सजी है, लेकिन बिहारी बाबू वहां कांग्रेस की पिच पर बैटिंग या बॉलिंग करते नज़र नहीं आ रहे हैं। लगता है कि फ़ील्डिंग करना ही अब उनकी सियासी मजबूरी हो गई है। वो भी बाउंड्री वॉल से बाहर खड़े होकर।


बिहार में चुनावी आरोप-प्रत्यारोप का शोर जारी है… कोरोना को लेकर जमकर सियासत हो रही है… बाढ़ को लेकर तमाम विपक्षी दल नीतीश सरकार को पानी पी-पीकर कोस रहे हैं… प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव की तारीख़ों के ऐलान से पहले बिहार की झोली में ताबड़तोड़ योजनाओं की सौगात भर रहे हैं… पक्ष और विपक्ष में शामिल छोटे दल आंखें तरेर रहे हैं… वे ज्यादा से ज्यादा सीटें झटकने की हर जुगत में लगे हुए हैं… असंतुष्ट नेता बाक़ायदा मुहूर्त निकालकर इधर से उधर… उधर से इधर जाने की क़वायद में जुटे हैं… लेकिन बिहारी बाबू एकदम ख़ामोश हैं….. लोकसभा की पटना साहिब सीट से वे 2019 का चुनाव हार गए थे। उनकी पत्नी पूनम सिन्हा ने लखनऊ से समाजवादी पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा और हार गईं। कांग्रेस में रहते हुए भी शत्रु अपनी पत्नी के लिए चुनाव प्रचार के लिए लखनऊ पहुंचे थे। इस पर कांग्रेस ने ख़ासी नाराज़गी जताई थी। लेकिन शत्रु को ये जताने में कोई हिचक नहीं हुई कि उनके लिए पार्टी से ज़्यादा अहमियत उनकी पत्नी रखती हैं। जब कांग्रेस का ही राजनैतिक भविष्य फिलहाल मंझधार में नज़र आ रहा है, तो फिर शत्रु वहां रहकर शोर मचाएं भी, तो किस काम का। अब तो लगता है कि शत्रुघ्न सिन्हा को कांग्रेस का वशवाद भी रास आ रहा है। कांग्रेस में वंशवाद के ख़िलाफ़ 23 वरिष्ठ नेताओं ने लैटर बम फोड़ा, तब भी शत्रुघ्न सिन्हा कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं दिए… भारतीय जनता पार्टी में रहते हुए, वे बड़ी बेबाकी से नाइत्तफ़ाकी भरे बयान जारी करते रहते थे। लगता है कि सिन्हा साहेब को कांग्रेस में सब कुछ ठीक-ठाक ही दिखाई दे रहा है या फिर ख़ामोश रहना उनकी मजबूरी है।

राजेश खन्ना-शत्रुघ्न सिन्हा


जून, 1992 में नई दिल्ली लोकसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार फिल्म अभिनेता राजेश खन्ना के ख़िलाफ़ बीजेपी के टिकट पर उपचुनाव में उतर कर शत्रुघ्न सिन्हा ने राजनैति में पहला क़दम रखा था। ये सीट लालकृष्ण आडवाणी ने दो जगहों से जीतने पर छोड़ी थी। आडवाणी की सलाह पर ही शत्रु को बीजेपी का टिकट दिया गया था। लेकिन वे चुनाव हार गए। चुनाव प्रचार के दौरान हुई खट-पट की वजह से राजेश खन्ना ने इसके बाद मरते दम तक कभी शत्रुघ्न सिन्हा से उनके कोशिशें करने पर भी बात नहीं की। शत्रुघ्न सिन्हा इस बात पर मुखर मलाल जता चुके हैं कि उस चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी उनके पक्ष में प्रचार करने के लिए एक भी सभा में नहीं पहुंचे थे। हालांकि उन्हें तब से ही आडवाणी का भरोसेमंद माना जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार केंद्र में आई, तो शत्रुघ्न को कैबिनेट मंत्री बना कर सम्मान दिया गया और इस चर्चा पर भी मुहर लग गई कि बिहारी बाबू के आडवाणी के साथ क़रीबी रिश्ते हैं।


लेकिन 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से ही शत्रुघ्न सिन्हा के तेवर गर्म होने लगे। अप्रैल, 2019 में कांग्रेस में शामिल होने तक वे मोदी के हर बयान पर पलटवार करते रहे। मीडिया ने उन्हें बीजेपी का अंदरूनी विपक्ष ही मान लिया और उन्होंने भी मोदी और अमित शाह के बयानों पर पलटवार करने में कोई नर्मी नहीं दिखाई। शत्रुघ्न के कांग्रेस में जाने तक ये सवाल बराबर बना रहा और आज भी बरकरार है कि वे बीजेपी के मौजूदा निजाम से नाराज़ क्यों थे या अब भी हैं… कहा जाता है कि केंद्र में उन्हें मंत्री नहीं बनाए जाने से वे नाराज़ होना शुरू हुए। पार्टी में भी उन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं मिली। सूत्रों का कहना है कि शत्रु ने बिहार की तत्कालीन जीतनराम मांझी सरकार से अपने लिए पद्म विभूषण सम्मान की सिफ़ारिश कराई थी, लेकिन मोदी सरकार ने उस पर मुहर नहीं लगाई। इससे भी वे ख़फ़ा हुए। इसके बाद रूठते जाने का सिलसिला ज़ोर पकड़ने लगा। बीजेपी छोड़ चुके यशवंत सिन्हा के भारत निर्माण मंच पर भी शत्रुघ्न सक्रिय दिखाई दिए, लेकिन बीजेपी ने उन्हें अपनी तरफ़ से बाहर का रास्ता नहीं दिखाया।। आख़िर में उन्होंने ख़ुद ही कांग्रेस का दामन थामने का फ़ैसला किया।
बीजेपी में रहते हुए शत्रुघ्न सिन्हा यशवंत सिन्हा के भारत निर्माण मंच से जुड़े हुए दिखाई देते रहे, लेकिन अजीब सी विडंबना है कि यशवंत सिन्हा आज बिहार विधानसभा चुनाव 2020 को लेकर ख़ासे सक्रिय हैं, उनका मोर्चा योग्य उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारने की बात कर रहा है, उन्होंने बिहार का सघन दौरा भी किया है। लेकिन बीजेपी को हराने का इरादा लेकर कांग्रेस में शामिल हुए शत्रुघ्न सिन्हा अभी तक ख़ामोश ही नज़र आ रहे हैं। क्या अब ख़ामोशी ही उनकी अंतिम नियति है या फिर कोई नरेंद्र मोदी, अमत शाह और जे पी नड्डा को बताएगा कि शत्रु बाबू को बीजेपी की याद आ रही है।

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