मिर्जा ग़ालिब : जो आज भी अपनी ग़ज़लों एवं पत्रों के माध्यम से हमारे बीच जीवित हैं

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लेखक : डा. मोहम्मद अलीम

 

दिले नादां तुझे हुआ क्या है
आखि़र इस दर्द की दवा क्या है

 

यह दो वर्ष पहले की बात है जब मुझे महान उर्दू शायर मिर्जा ग़ालिब पर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नई
दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिला। मेरी दिलचस्पी की वजह पाकिस्तान से
आए प्रसिद्ध कलाकार, श्री ज़िया मोहियुद्दीन थे जो गालिब की ग़ज़लों को अपनी खूबसूरत और प्रभावी
आवाज़ में पेश करने वाले थे। गालिब के जिन पत्रों का उन्होंने चुनाव किया था वह उस महान शायर की
जिंदगी के गहरे राजों को खोलने की अद्भुत क्षमता रखते हैं और जिसे उन्होंने अपनी जिंदगी के सबसे
खतरनाक और बुरे दौर में लिखा था। उसके साथ ही एक दूसरा आकर्षण था भारत की प्रसिद्ध गजल
गायिका राधिक चोपड़ा जो गालिब की चुनिंदा गजलों को अपनी सुरीली और मोहित करने वाली आवाज में
कमाल खूबी के साथ प्रस्तुत करने वाली थीं।
जिया मोहियुद्दीन पाकिस्तान के एक प्रसिद्ध अभिनेता, फिल्म निर्देशक, निर्माता और टेलीविजन
ब्रोडकास्टर हैं। उन्होंने अनेक पाकिस्तानी तथा ब्रिटिश फिल्मों में अपनी अदाकारी का जौहर दिखाया है।
उनका जन्म अविभाजित भारत के समय फैसलाबाद शहर में हुआ था जब देश पर अंग्रेजों का राज था।
उन्होंने अपना बचपन कराची में बिताया था।

दोनों कलाकार, जिया मोहियुद्दीन और राधिक चोपड़ा ने एक कमाल का समां बांधा। जिया साहब अपने
मखसूस अंदाज और लबो लेहजे में उनके चंद खत पढते तो राधिका चोपड़ा उन खतों में बयान एहसासात को
और गहराई बख्शने के लिए गालिब की गजलें अपनी मधुर आवाज में गातीं। जिन गजलों का उन्होंने चुनाव
किया था वह गालिब की आसान मगर बेहद प्रसिद्ध और दिलों छू लेने वाली गजलें थीं जैसे कि :
बाज़ीच-ए-इतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शबे रोज तमाशा मेरे आगे
यानि दुनिया मेरे सामने एक बच्चों के खेल की तरह है जिसके रोज होते तमाशे को मैं बड़े गौर और इन्हेमाक
के साथ देखता रहता हूं।
या उनकी अन्य गजलें जैसे कि :
दिले नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है
या फिर
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
या
दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए
दिल जब दर्द हो तो क्या कीजिए

ज़िया मोहियुद्दीन और राधिका चोपड़ा दोनों का कमाल यह था कि उन्होंने कमाल हुनरमंदी के साथ इस
कार्यक्रम को दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया।
गालिब की शख़्सियत और फ़न में वाक़ई वह खूबी है जो आज भी दो शताब्दी बाद हमें अपनी ओर इस प्रकार
आकर्षित करती है जैसे कि वह अभी हमारे बीच मौजूद हों। कभी उनकी हाजिर जवाबी हमें चौंकाती है तो
कभी उनका दिलों के जज्बात को झिंझोड़ देने वाले उनके अशआर हमें अपनी ओर खींचते हैं। उनकी एक
दूसरी सबसे बड़ी खूबी यह थी कि उन्होंने न सिर्फ हुस्न व इश्क को अपनी शायरी का मौजू बनाया बल्कि
सामाजिक बुराईयों, धार्मिक मान्यताओं एवं कुरीतियों के खिलाफ भी बिना भय के साथ लिखा।
1857 की नाकाम क्रांति के बाद दिल्ली जिस प्रकार उजड़ी थी और कत्लेआम हुआ था, वैसे में गालिब जैसा
शायर जिस शिद्दत के साथ उन हालात को महसूस कर के बयान करता है, वैसा कोई दूसरा शायर हमें ढूंढ़े
से नहीं मिलता।
गालिब की शख्सियत कई विरोधाभासों पर टिकी थी। एक ओर जहां वह अहंवादी थे तो वहीं यह भी देखने
को मिलता है कि अंग्रेजों से अपनी पेंशन और आर्थिक सहयोग के लिए हर समय गुहार और मंत्रणा करते
नजर आते हैं। उनके पत्रों का प्रसिद्ध संग्रह ‘‘ गालिब का सफर-ए-कलकत्ता ’’ में ऐसे अनेक ऐसे पत्र हैं
जिनमें उनका यह दर्द बेहद गहराई के साथ बयान हुआ है कि किस प्रकार शराब और उम्दा खानों और नौकर
चाकर के बल पर गुज़र रही उनकी जिंदगी पैसे की तंगी के कारण परेशानी का शिकार हो गई थी।
आशचर्य की बात तो यह है कि एक ओर गालिब ने आध्यात्मिकता की गहराई में गोते लगा कर अनेक
गजलें कहीं और पत्र लिखे, वहीं उनमें दुनिया परस्ती भी कूट कूट कर एक आम इंसानों की तरह ही भरी हुई
थी। और यही बात उन्हें एक अजीम शायर की पंक्ति में ला कर खड़ा करती है। और उन्होंने कभी भी अपनी
कमजोरियों और खामियों को दुनिया से छुपाने की कोशिश भी नहीं की। वह जैसे थे वैसा ही अपने आपको

दुनिया के सामने पेश कर दिया। कभी अपनी शायरी के माध्यम से तो कभी पत्रों के माध्यम से तो कभी
बातचीत और तकरीरों के जरिये।
अंत में एक बात उन सभी लोगों से जो उर्दू से प्रेम तो करते हैं मगर इसके प्रोत्साहन और विकास में उस
प्रकार भागीदार नहीं बनते जैसा कि बनना चाहिए। उर्दू एक लिपि के तौर पर आज सिमटती जा रही है और
दिन ब दिन इसका वजूद खतरे में पड़ता दिखाई देता है।
अगर ऐसा हुआ कि यह जुबान अपना वजूद खो बैठी तो यकीन मानिए कि यह देश की साझी विरासत के
लिए एक बहुत बड़ा नुक्सान होगा जिसकी हम भरपाई शायद कभी नहीं कर पाएंगे। हम न केवल उर्दू में
लिखी चीजों को पढ़ें बल्कि अपने बच्चों को भी उर्दू लिखने पढ़ने के लिए प्ररित करें। गालिब जैसे अजीम
शायरों के प्रति हमारी यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

डा. मोहम्मद अलीम संस्कृति पुरस्कार प्राप्त उपन्यासकार, नाटककार, पटकथा लेखक एवं पत्रकार हैं।
इन्होंने अभी हाल ही में महाकाव्य रामायण पर आधारित एक मंचीय नाटक लिखा है जिसका नाम है, ‘‘
इमाम-ए-हिंदः राम ’’

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