क्या बिहार की राजनीति में लालू युग अस्त हो रहा है? – रवि पाराशर

रवि पाराशर



राजनीति के आधुनिक दौर में लालू यादव केंद्र और बिहार, दोनों की राजनीति में बराबर वज़न रखने के लिए जाने जाते रहेंगे। राज्यों से दिल्ली आने वाले बहुत से नेता ऐसे होते हैं, जो सिर्फ़ केंद्र के राजनैतिक अखाड़े के पहलवान होकर रह जाते हैं और बहुत से ऐसे, जिनकी हनक राज्य विधानसभाओं तक ही महदूद होकर रह जाती है। लालू यादव के अलावा, मुलायम सिंह यादव, मायावती जैसे कुछ ही नेता हैं, जिनका सियासी दबदबा विधानसभाओं के साथ-साथ दिल्ली के राजनैतिक गलियारों में एक जैसा ही दिखाई देता है। बिहार में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। कोरोना काल में चुनाव में जाने वाला बिहार देश का पहला राज्य है, इस लिहाज़ से चुनाव आयोग के लिए वहां सफलतापूर्वक चुनाव कराना पहली अग्निपरीक्षा जैसा है। बिहार का चुनाव कई मामलों और राजनैतिक माइनों में अभूतपूर्व है। एक बड़ा प्रश्न तो यही खड़ा हो रहा है कि क्या बिहार की सियासत में लालू यादव का सूर्य इस चुनाव के साथ ही अस्त होने जा रहा है?


दूसरा बड़ा सवाल यही है कि क्या बिहार में वंशवाद का पौधा वृक्ष बनने की ओर और अग्रसर हो पाएगा? तेजस्वी यादव और चिराग़ पासवान यानी सियासत की दो नई पीढ़ियां क्या बिहार में अपनी जड़ें स्थाई रूप से जमा पाएंगी? सवाल ये भी है कि बिहार में भ्रष्टाचार का मुद्दा पिछले सात दशक की तरह उसी मज़बूती से कब तक खड़ा रहेगा? वैसे वंशवाद और भ्रष्टाचार, ये दो शब्द ऐसे हैं, जिन्हें लेकर हर चुनाव के वक़्त ख़ूब चर्चा होती है। क्योंकि अब देश में हर साल चुनाव होते रहते हैं, इसलिए कहा जा सकता है कि वंशवाद और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर चर्चा देश में हर समय चलती ही रहती है। केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से भ्रष्टाचार और वंशवाद को लेकर बहुआयामी चर्चा की दिशा बदली है और वंशवाद के मामले में कांग्रेस के अंदर भी निर्विवाद रूप से अंतर्विरोध खड़े होने लगे हैं। लेकिन क्षेत्रीय पार्टियों के दबदबे वाले बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों की जनता के पास वंशवाद को झेलने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। वंशवादी सोच वहां या तो विपक्ष में रहती है या सरकार में।
बिहार में वर्ष 2005 से पहले 15 साल तक राज करने वाला राष्ट्रीय जनता दल यानी लालू यादव का परिवार क्या अब लालू की छवि से मुक्त होना चाहता है? इस सवाल का जवाब अगर हां है, तो फिर सवाल है कि आरजेडी में सिसासत की नई पीढ़ी लालू-राबड़ी के बेटे तेजस्वी यादव ऐसा क्यों चाहते हैं कि बिहार के लोग उन्हें पिता की छवि से अलग हटकर देखें? जेडीयू और बीजेपी ने 2020 के चुनाव को 15 साल बनाम 15 साल के मुद्दे पर केंद्रित कर दिया है, तो क्या तेजस्वी यादव को लगता है कि बिहार के लोग उनके माता-पिता के कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार को कहीं फिर से याद न करने लगें? क्या यही वजह है कि आरजेडी ने अपना नया पोस्टर लॉन्च किया, तो लालू यादव की तस्वीर को उसमें जगह नहीं दी गई है? पोस्टर पर सिर्फ़ तेजस्वी यादव की तस्वीर है और लिखा गया है- नई सोच, नया बिहार, युवा सरकार अबकी बार।


ऐसा पहली बार हुआ है कि आरजेडी के पोस्टर से लालू यादव ग़ायब किए गए हों। हालांकि आरजेडी के बहुत से कार्यकर्ता नहीं चाहते कि लालू यादव को प्रचार सामग्री से नदारद किया जाए। उनकी दलील है कि लालू यादव जेल में होने की वजह से सदेह तो प्रचार से लापता रहेंगे ही, उन्हें प्रचार से ग़ायब कर देने से आरजेडी को बहुत नुकसासन हो सकता है। वैसे ये पहला मौक़ा नहीं है, जब तेजस्वी यादव ने पिता से दूरी बनाई है। इससे पहले वे जुलाई की शुरुआत में ही अपने माता-पिता के कार्यकाल में हुई ग़लतियों को स्वीकारते हुए बिहार के लोगों से माफ़ी मांग चुके हैं। पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए तेजस्वी यादव ने पटना में साफ़-साफ़ कहा था कि “ठीक है, 15 साल हम लोग सत्ता में रहे, पर हम सरकार में नहीं थे, हम छोटे थे। फिर भी हमारी सरकार रही। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि लालू प्रसाद यादव के राज में सामाजिक न्याय नहीं हुआ। 15 साल में हमसे कोई भूल हुई थी, तो हम उसके लिए माफी मांगते हैं।”
अब सवाल ये है कि जब तेजस्वी खुलेआम स्वीकार कर चुके हैं कि लालू-राबड़ी के शासन काल में सामाजिक न्याय नहीं हो पाया, तो वे किस नैतिक मनोबल के साथ नीतीश शासन के 15 साल में बिहार की अपेक्षाकृत ज़्यादा बदहाली के लिए एनडीए सरकार को लगातार घेर रहे हैं? या फिर उन्हें नहीं पता कि सामाजिक न्याय आख़िर होता क्या है? अगर तेजस्वी के माता-पिता के शासन काल में सामाजिक न्याय नहीं हुआ, तो इसका अर्थ यही है कि सामाजिक अन्याय हुआ। इसका यही अर्थ है कि समाज की बेहतरी के लिए उन 15 वर्षों में काम नहीं हुआ। इसका अर्थ यही है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, औद्योगीकरण, रोज़गार और बिजली-पानी-सड़क की स्थिति लालू-राबड़ी के काल में नहीं सुधरी। इसका अर्थ यही है कि समाज के निचले तबके को ऊपर उठाने के लिए लालू-राबड़ी सरकारों ने उल्लेखनीय काम नहीं किए और इसका अर्थ यही है कि अपराध पर प्रभावी अंकुश लालू-राबड़ी के काल में नहीं लग पाया।
ख़ुद तेजस्वी अगर खुले मन से ये स्वीकारते हैं, तो ये वाक़ई हिम्मत का काम है और ऐसी ईमानदारी पर मौजूदा बिहार के युवा फ़िदा हो सकते हैं… लेकिन क्या ये वाक़ई ईमानदारी के साथ दिया गया बयान था या फिर भ्रष्टाचार में डूबी लालू की छवि से छुटकारा पाने की मौक़ापरस्त रणनीति भर है? असल में राष्ट्रीय जनता दल यानी अपने परिवार की भावी पीढ़ी को नए सिरे बिहार में स्वीकृत कराने के लिए ये लालू यादव की ही सोची-समझी चाल हो सकती है। लालू अभी चारा घोटाले में सज़ा काट रहे हैं। इस वजह से ही उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी गई थी। 72 साल के हो चुके लालू यादव नियमों के मुताबिक़ अब शायद की कभी चुनाव लड़ पाएं। यही वजह है कि आरजेडी परिवार चाहता है कि तेजस्वी के रूप में उसका वंश स्निग्धता के साथ आगे बढ़ जाए। तेजस्वी चमक जाएं और लालू की छवि लोगों के ज़ेहन से उतर जाए।
वैसे भी लालू यादव जेल की सलाख़ों में रहकर परिवार की राजनीति चलाने का अच्छा-ख़ासा अनुभव रखते ही हैं। पहले पत्नी की सरकार चला चुके हैं। अब अगर तेजस्वी का नसीब खुल गया, तो बेटे की सरकार भी जेल से ही चलाई जा सकती है। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा की ग़ैर-बीजेपी यानी लालू की मित्र सरकार है ही। जेल में तो वे कहने भर को हैं। वहां जमकर ख़ातिरदारी हो ही रही है। लेकिन बिहार की सयानी जनता समझदारी से काम लेती है, तो वो ख़ुद की आंखों में धूल झौंकने की इस कोशिश के लिए तेजस्वी यादव को करारा जवाब भी दे सकती है।

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