कश्मीर में क्या कुछ बड़ा होने जा रहा है? – रवि पाराशर

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  • रवि पाराशर, वरिष्ठ पत्रकार

एक-दो दिन से हर ख़ास और आम की ज़ुबान पर यही चर्चा है कि कश्मीर में क्या कुछ बड़ा घटनाचक्र होने वाला है? चर्चा इस वजह से है क्योंकि अमरनाथ यात्रा को बीच में ही रोक कर यात्रियों को वापस लाने की प्रक्रिया शुरू करने का फैसला अचानक करते हुए सरकार ने घाटी में अर्धसैनिक बलों की तैनाती युद्धस्तर पर बढ़ाना शुरू कर दिया है। आनन-फानन में उठाए गए इस क़दम से वे अमरनाथ यात्री नाराज़ हैं, जो बाबा बर्फानी के दर्शन नहीं कर पाए हैं। ज़ाहिर है कि अर्धसैनिक बलों की जिन टुकड़ियों को कश्मीर भेजने का फ़ैसला किया गया है, उनके जवानों और उनके परिवारों के मन में भी आशंकाओं के काले बादल मंडराने लगे होंगे। पता नहीं क्या होगा?

कश्मीर में क्या होने जा रहा है? इसे लेकर लोगों के मन में  जो सवाल उठ रहे हैं, वे हैं कि क्या केंद्र की मोदी सरकार कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने जा रही है? क्या सरकार कश्मीर घाटी में परमानेंट रेजिडेंट सर्टिफिकेट की व्यवस्था लागू करने वाले अनुच्छेद 35ए को ख़त्म करने की संवैधानिक प्रक्रिया की शुरुआत करने जा रही है? क्या सरकार कश्मीर घाटी में छिपे आतंकवादियों के ख़िलाफ़ चलाए जा रहे ऑपरेशन ऑलआउट की रफ्तार बहुत तेज़ करने जा रही है? क्या सरकार बार-बार युद्धविराम कर रहे पाकिस्तान को सबक़ सिखाने के लिए कुछ ठोस कार्रवाई का मन बना चुकी है? क्या सरकार के पास ऐसा कोई ख़ुफ़िया इनपुट है कि पाकिस्तान की तरफ़ से कश्मीर में करगिल जैसी ही कोई दुस्साहसी हिमाक़त की जा सकती है? एक बात यह भी सामने आई कि केंद्र सरकार चाहती है कि 15 अगस्त को हर पंचायत में देश का राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाए। क्या जवानों का जमावड़ा इसलिए ही बढ़ाया जा रहा है?

इन सभी सवालों पर सिलसिलेवार विचार करेंगे, लेकिन एक बात तो तय है कि केंद्र सरकार के पास ऐसा ख़ुफ़िया इनपुट ज़रूर है कि अमरनाथ यात्रियों की जान को ख़तरा हो सकता है। ज़ाहिर है कि उन्हें यह ख़तरा आतंकी हमलों से ही हो सकता है। लेकिन यहां उल्लेखनीय बात यही है कि अमरनाथ यात्रियों पर पहले भी हमले होते रहे हैं, लेकिन यात्रा बीच में शायद ही रोकी गई है। एक पहलू यह भी हो सकता है कि केंद्र सरकार कश्मीर में जो भी करने जा रही है, उसके बाद वहां अराजकता का माहौल बनने की प्रबल आशंका हो सकती है। ऐसा होता है, तो अमरनाथ यात्रियों के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो सकती है। अमरनाथ यात्रा इस बार 15 अगस्त चलनी थी, क्योंकि रक्षा बंधन इसी दिन पड़ रहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि कश्मीर में अतिरिक्त जवानों की तैनाती का जो भी मक़सद है, उसका प्रतिफल 15 अगस्त तक पता चल जाने वाला है (या फिर यह दूरगामी भी हो सकता है)। लेकिन यह भी तय है कि सरकार ने अतिरिक्त बलों की तैनाती का फैसला आनन-फानन में ही लिया यानी जो भी इनपुट मिला, उस पर तत्काल कार्रवाई की गई।

जहां तक अनुच्छेद 370 और 35ए हटाने संबंधी संसदीय कार्यवाही का सवाल है, तो मुझे नहीं लगता कि सरकार ऐसा कोई फैसला आनन-फानन में करेगी। दोनों ही अनुच्छेदों को रद्द करने संबंधी केस देश के सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है। ऐसे में फैसला आने से पहले केंद्र की मोदी सरकार इस तरफ क़दम बढ़ाएगी, ऐसा लगता नहीं है। संविधान संशोधन की प्रक्रिया के लिए राज्यसभा का आंकड़ा भी सरकार के पक्ष में फिलहाल नहीं है और इसके लिए जम्मू-कश्मीर विधानसभा की मंजूरी भी जरूरी होगी। फिलहाल वहां राष्ट्रपति शासन लागू है, इसलिए भी यह समय 370 और 35ए को हटाने के लिए अनुकूल नहीं है। जहां तक ऑपरेशन ऑलआउट की गति बढ़ाने बात है, तो भी अतिरिक्त सुरक्षा बलों की आकस्मिक तैनाती का फैसला लेने की ज़रूरत समझ में नहीं आती। पाकिस्तान 2003 में लागू हुए युद्धविराम का उल्लंघन रोज़ ही कर रहा है और भारतीय सेना उसे मुंहतोड़ जवाब दे ही रही है। इसके लिए भी अतिरिक्त सुरक्षा बल घाटी में भेजने की बात गले से नहीं उतरती।

तो फिर सरकार के मन में क्या है? इसका सही-सही जवाब तो मोदी सरकार के चुनींदा रणनीतिकारों को ही पता होगा, लेकिन एक कयास ज़रूर लगाया जा सकता है। तथ्य यह है कि भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवल के कश्मीर दौरे के तत्काल बाद केंद्र ने कश्मीर में सैन्य बल बढ़ाने का फ़ैसला किया है। इस फ़ैसले से शायद उतने क़यास नहीं लगते, लेकिन अमरनाथ यात्रा ख़त्म करने के फ़ैसले ने पूरे देश की जिज्ञासा के कपाट खोल दिए हैं। जो क़यास लगाया जा सकता है, वह ये है कि कश्मीर को लेकर अगर पिछले कुछ दिनों के अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम पर नज़र डालें, तो हो सकता है कि पाकिस्तान यह इरादा कर रहा हो कि कश्मीर में अशांति पैदा करने के लिए सीमापार से कुछ ऐसा किया जाए, जिससे भारत सरकार बातचीत के लिए दबाव में आ जाए। यानी करगिल जैसी कोई बड़ी साज़िश।

अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होने हैं। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दो बार कश्मीर मामले में मध्यस्थता की पेशकश खुलकर कर चुके हैं। पहली बार तो इसके लिए उन्होंने सफ़ेद झूठ बोला और कहा कि ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनसे मध्यस्थता की पेशकश की। उनके इस बयान को ख़ुद अमेरिकी विदेश विभाग ने ग़लत करार दे दिया। भारत की ओर से भी इसका पुरज़ोर खंडन जारी कर दिया गया। दूसरी बार ट्रंप ने कहा कि अगर भारत और पाकिस्तान चाहें, तो वे कश्मीर मसला हल करने के लिए मध्यस्थ बन सकते हैं। सवाल यह उठता है कि डोनाल्ड ट्रंप बार-बार कश्मीर की मध्यस्थता की बात कह क्यों रहे हैं? वह भी ऐसे समय में जबकि अमेरिका में घरेलू स्तर पर अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी नेतृत्व वाली नेटो सेना की वापसी की मांग ज़ोर पकड़ रही है और अमेरिकी प्रशासन ऐसा सोच भी रहा है। हम यह भी जानते हैं कि ट्रंप पाकिस्तान सरकार पर अफ़ग़ानिस्तान में नेटो सेना को कड़ी टक्कर दे रहे हक्कानी नेटवर्क और दूसरे आतंकी संगठनों को संरक्षण देने का आरोप भी लगाते रहे हैं।

हमें यह भी पता है कि पिछले दिनों ट्रंप प्रशासन ने पाकिस्तान को दी जाने वाली मदद में भारी कटौती का ऐलान किया था, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने उसे छह अरब डॉलर का भारी-भरकम कर्ज देने की मंज़ूरी गत जुलाई महीने में ही दी है। जब पाकिस्तान कंगाल हो चुका है, तो वह यह कर्ज लौटाएगा कैसे? आईएमएफ़ जैसी संस्था को इसका अंदेशा नहीं हो, यह कहना सही नहीं होगा। तो फिर असल माज़रा क्या है? हो सकता है कि ट्रंप को लगता हो कि कश्मीर समस्या का समाधान अगर उनकी मध्यस्थता में हो जाए या फिर उस दिशा में कोई ठोस पहलक़दमी ही हो जाए, तो वे हीरो बन सकते हैं। ऐसा हो गया, तो फिर उन्हें राष्ट्रपति पद के लिए दूसरा कार्यकाल मिल सकता है। इसके लिए उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के साथ कोई गुप्त रणनीति बनाई हो। उसके तहत पाकिस्तान से कश्मीर में ऐसा माहौल तैयार करने को कहा गया हो, ताकि भारत सरकार चौंक कर घबरा जाए और फिर बिल्ली को बंदरबांट का मौक़ा मिल जाए। लेकिन भारत को साज़िश की यह सूचना मिल गई हो और आनन-फ़ानन में मोदी सरकार ने आगामी संकट से निपटने के लिए कमर कस ली हो। हालांकि अभी यह दूर की कौड़ी ही है।

डोनाल्ड ट्रंप और इमरान ख़ान या फिर अकेले इमरान ख़ान ने अगर ऐसा कुछ सोचा है, तो उन्हें यह पता होना चाहिए कि अब बदले अंतर्राष्ट्रीय ध्रुवीकरण में भारत भी अब किसी बड़ी शक्ति से किसी मामले में कम नहीं है। ऐसा कोई भी इरादा दक्षिण एशिया में खलबली मचा सकता है और शक्ति संतुलन के फॉर्मूले स्थाई रूप से बदल सकते हैं। सभी जानते हैं कि चीन पाकिस्तान से मतलबी क़िस्म की सहानुभूति रखता है। चीन नहीं चाहेगा कि अमेरिका के साथ पाकिस्तान की गलबहियां बढ़ें। रूस भी नहीं चाहेगा कि पड़ौस में अमेरिका का दबदबा फिर से बढ़े। ऐसे में पाकिस्तान के तसव्वुर में अगर कश्मीर में बड़े ख़ून-ख़राबे की तस्वीरें आ रहा हों, तो इस बार का ख़्वाब उसके लिए हर स्तर पर आत्मघाती ही साबित होगा। बहरहाल, मोदी सरकार ने अतिरिक्त कुमुक तैनात करने का फ़ैसला 15 अगस्त को कश्मीर में पंचायत स्तर पर तिरंगे फहराने के इरादे से किया है, तो फिर इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

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