कर्नाटक : तुम करो तो रासलीला, हम करें तो कैरेक्टर ढीला।।

शरत सांकृत्यायन

कर्नाटक में चल रही “राजनीति की नौटंकी”  सफलता के नित नये कीर्तिमान गढ़ रही है। अभी तक अलग अलग राज्यों में अलग अलग समय पर सत्ता हासिल करने के जो भी खेल चले थे, कर्नाटक में वो सारा दाव पेंच एक साथ खेला जा रहा है। यह सबको पता है कि कर्नाटक में सत्ता की चाभी राज्यपाल वजूभाई बाला के हाथ में है…यदि कांग्रेस ने ये गलतफहमी पाल रखी थी कि राज्यपाल कुमारस्वामी को सरकार बनाने का न्योता दे देंगे वो शायद ठीक से वजूभाई को जानती नहीं है…ये वही वजूभाई बाला हैं जिन्होंने 1985 से लगातार जीतते आ रहे राजकोट पश्चिम की सीट 2002 में नरेंद्र मोदी के लिए खाली कर दी थी…. मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे तब सदन के सदस्य नहीं थे….मोदी ने वजूभाई द्वारा खाली की गई इस सीट से उपचुनाव जीता था। मोदी के सबसे चहेते वही बजूभाई बाला फिलहाल कर्नाटक के राज्यपाल हैं…अब आपही बताएं क्या मोदी ने अपने ऐसे समर्पित भक्त को इसलिए वहां का राज्यपाल बनाया था कि मौका पड़ने पर वे बीजेपी को नजरअंदाज कर किसी और की ताजपोशी करवा दें…बीजेपी का नेतृत्त्व अब उन हाथों में है जो राजनीति को उसके पूरे रंग में खेलना जानते हैं और इनकी रणनीति को समझने में अच्छे अच्छों की धोती ढीली हो जाती है।
आज कांग्रेस छाती पीट पीट कर नैतिकता और शुचिता की दुहाई दे रही है जिसका खुद उसने कभी पालन नहीं किया। कांग्रेस के काले कारनामों से इतिहास गंधाया पड़ा है। पहले कुछ बानगी देख लेंः
1947 में सरदार पटेल के पास बहुमत था, फिर भी नहेरू प्रधानमंत्री बन गये थे। हमारी लोकतंत्र की ये शुरुवात थी, जो अब खतरे में अाई है।
हंसराज भारद्वाज- 2009, कर्नाटक के राज्यपाल, पूर्ण बहुमत वाली बी एस येदुरप्पा की सरकार को बर्खास्त कर दिया गलत तरीके से बहुमत साबित करने का आरोप लगा कर…!
बूटा सिंह- 2005, बिहार विधानसभा भंग कर दिया जबकि NDA सरकार बनाने के लिए निमंत्रण का इंतजार कर रही थी, बाद में कोर्ट ने राजपाल के फैसले को असंवैधानिक घोषित किया..!
सैयद सिब्ते रजी- 2005, झारखंड में बिना बहुमत शिबू शोरेन को CM बना दिया, 9 दिन बाद बहुमत के अभाव में इस्तीफा देना पड़ा और अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में nda ने सरकार बनाई…!
रोमेश भंडारी- 1998 में कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त कर जगदम्बिका पल को 2 दिन का मुख्यमंत्री बनाया, कोर्ट ने फैसले को असंवैधानिक घोषित किया फिर कल्याण सिंह ने दोबारा सरकार बनाई…!
जी डी तापसे- 1982 में देवीलाल के पास पूर्ण बहुमत रहते हुए जबरन भजनलाल को शपथ दिलवा दिया और देवी लाल राजभवन में बैठे रह गए….
पी वेंकटसुबैया- 1988 में बोम्मई की सरकार को विधानसभा में बहुमत खो चुकी बोलकर बर्खास्त कर दिया, कोर्ट ने फैसले को असंवैधानिक घोषित किया और बोम्मई ने फिर से सरकार बनाई…
राज्यपाल कृष्णपाल सिंह- 1996 गुजरात में भाजपा शासित सुरेश मेहता सरकार को विश्वास का मत हासिल करना था, विधानसभा के फ्लोर पर विश्वास का मत हासिल करने के बावजूद राज्यपाल ने गुजरात विधानसभा भंग कर दिया और एच डी देवेगौड़ा की सरकार ने उस पर मोहर लगाकर गुजरात में राष्ट्रपति शासन की घोषणा करवा दी थी… वर्तमान कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई वाला तत्कालीन गुजरात प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष थे और एच डी देवेगौड़ा देश के प्रधानमंत्री थे… आज 22 साल बाद दोनों किरदार वही हैं, वही वजुभाई वाला है…वही एच डी देवेगौड़ा की पार्टी है, कुमारस्वामी को आज राजभवन से न्याय की उम्मीद है जिन्होंने 1996 में अन्यायपूर्ण ढंग से लोकतंत्र की हत्या की थी… आज बाज़ी कर्नाटक के राज्यपाल के रूप में वजुभाई वाला के हाथ में है…
यह कुछ उदाहरण है जब कांग्रेस के राज्यपालों ने सरेआम मालिको के इशारों पे संविधान, नैतिकता का मजाक उड़ाया… लोकतंत्र को खिलौना बना दिया था इन लोगो ने, अब जब कांग्रेस से सीखे अध्याय को कांग्रेस पर आजमाया जा रहा है तो झारखंड में कभी एक निर्दलीय विधायक की सरकार बनवाकर सत्ता की मलाई चाटनेवाली कांग्रेस किस मुंह से लोकतंत्र की हत्या हो गयी जैसे जुमले बोल रही..??
बीजपी अटल आडवाणी के दौर से बहुत आगे निकल चुकी है, यह अब मोदी शाह की जोड़ी के इशारों पर चलती है और इन्हें कांग्रेस को उसी के स्टाइल में जवाब देने में रत्ती भर भी संकोच नहीं है। लेकिन सवाल यह भी है कि इन सब पैंतरेबाजियों से सत्ता हासिल कर आखिर फायदा किसको हो रहा है? संविधान निर्माताओं ने दुनिया भर के संविधानों से छांट छांटकर एक आदर्श संविधान गढ़ने की कोशिश की, उसमें सरकार गठन के आदर्श प्रावधानों को इंगित किया लेकिन यह सोचना ही भूल गये कि यदि किसी भी दल को बहुमत हासिल नहीं होता है तो सरकार का गठन कैसे होगा। और यहां उन्होंने संभावनाओं से भरा खाली मैदान छोड़ दिया और रेफरी राज्यपाल को बना गये। हालांकि समय समय पर संविधान में भी संशोधन हुए हैं और अदालतों ने भी काफी हद तक दिशानिर्देश तय करने की कोशिश की है लेकिन अभी भी इस प्रक्रिया में इतने छेद हैं कि लोकतंत्र को अपनी लाज ढकनी मुश्किल हो जा रही है।

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