गठबंधन की राजनीति मजबूरी या मौकापरस्ती- एस एन द्विवेदी

एस एन द्विवेदी

‘गठबंधन’ राजनीति में दो या दो से अधिक दलों का सत्ता हासिल करने के लिए बनाया हुआ संयुक्त दल. जी हाँ जब सिर्फ सत्ता हासिल करने के लिए कोई गठबंधन किया जाता है तो जाहिर है उसमें नीति नैतिकता की बातें बेमानी हो जाती हैं . हालात ये है की हम आज गठबंधन सरकार की कमजोरियों के विषय में तो बेहिचक लिख सकते हैं पर जब गठबंधन सरकार के पॉजिटिव पहलू के बारे में लिखना हो तो उंगलियाँ थम सी जाती है.
90 के दशक में शुरू हुई लोकतंत्र की ये विडंबना आज तीस साल बाद भी ख़त्म होने को तैयार नहीं है. इस गठबंधन के भी दो पक्ष हैं एक चुनाव पूर्व गठबंधन और दूसरा पोस्ट पोल यानी चुनाव बाद विशुद्ध रूप से कुर्सी पर कब्जे के लिए किया जाने वाला बंधन.
भारत ने पहली बार गठबंधन की राजनीती का रंग 79 के आम चुनावों में देखा जब आपातकाल के बाद पहली बार सभी विपक्षी दल इंदिरा गाँधी के तानाशाही प्रणाली के खिलाफ एक हो गए थे और उन्होंने केंद्र में सरकार बनाई थी . ये वो दौर था जब देश ने बहुत उम्मीद से विपक्ष की तरफ एकतरफा मतदान किया था परन्तु राजनीतिक दल और जनता दोनों के लिए ये प्रयोग सुखद नहीं रहा.
प्रभावी रूप से 1989 से भारत में गठबंधन की राजनीति का युग आरंभ होता है, जो आज तक भारतीय राजनीति की प्रमुख विशेषता बना हुआ है । इसके प्रमुख कारण हैं- प्रथम क्षेत्रीय स्तर पर कांग्रेस के जनाधार में आयी गिरावट जिसके अंतर्गत धीरे-धीरे कांग्रेस का परम्परागत वोट बैंक जैसे- मुस्लिम समुदाय, अनुसूचित जातियाँ आदि विभिन्न राज्यों में कांग्रेस से अलग हो गयी तथा वे क्षेत्रीय दलों की ओर आकर्षित हुईं । दूसरा धीरे- धीरे भारतीय राजनीति में 1990 के दशक में क्षेत्रीय दलों का महत्त्व बढ़ने लगा तथा वे राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावी भूमिका निभाने की स्थिति में आ गये ।
उस दौर से शुरू हुआ ये सिलसिला मानों राजनीती का अभिन्न अंग बन गया केंद्र में २०१४ और २०१९ में सत्तारूढ़ NDA में बीजेपी ने पूर्ण बहुमत आने के बाद भी इस सिलसिले को नहीं तोड़ा.. और आज भी वो केंद्र में करीब तीन दर्जन छोटे बड़े दलों के साथ सरकार चला रही है.
गठबंधन हमारे लोकतंत्र की मज़बूरी भी है ये मज़बूरी है तमाम दलों की सत्ता पाने की जिसमें हर दल सत्ता की मलाई खाना चाहता है. अपने त्वरित और अप्रत्याशित फैसलों के लिए जाने जाने वाले प्रधानमंत्री मोदी हालांकि एक देश एक चुनाव की बात कर चुनाव रिफार्म का संकेत दे चुके है पप्र ये इतना बड़ा फैसला है की फिलहाल तो ये अभी दूर की कौड़ी ही लगता है .
ज़रा सोचिये हमारे लोकतान्त्रिक सिस्टम में आज भी मतदान यानी छुट्टी का दिन ही माना जाता है इसे आम जनता जिम्मेदारी मानने को अभी भी तैयार नहीं है. आज सबसे पहले आवश्यकता है अनिवार्य मतदान की जब तक हर मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करेगा तब तक शायद हमें इस गठबंधन के दंश से छुटकारा भी नहीं मिल सकेगा.

गठबंधन सरकार की समस्याएँ
भारत में गठबन्धन सरकारों में क्षेत्रीय दलों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । क्षेत्रीय दल क्षेत्रीय हितों के प्रति संवेदनशील होते हैं । इस कारण क्षेत्रीय हित राष्ट्रीय हितों पर हावी हो जाते हैं ।
गठबन्धन सरकार की एक मुख्य समस्या सरकार की अस्थिरता तथा शामिल दलों की आपसी खींचतान है । क्षेत्रीय दल क्षेत्रीय हितों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, अत: गठबन्धन में उनकी भूमिका राष्ट्रीय हितों के अनुकूल नहीं होती । आपसी खींचतान के कारण नीतियों में समायोजन व एकरूपता का अभाव बना रहता है ।
गठबंधन सरकार में संसदीय प्रणाली के एक प्रमुख सिद्धान्त- मंत्रिमंडल का सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त का भी पालन नहीं हो पाता है, क्योंकि मंत्रिमंडल में शामिल मंत्री एक पार्टी के न होकर कई राजनीतिक दलों के होते हैं । नेताओं के निजी हित देश हित के ऊपर होते है इसका सबसे क्रूर उदहारण १९८९ के रुबिया सईद अपहरण कांड में दिखाई दिया जब हमें सिर्फ गठबंधन के दवाब के चलते खतरनाक आतंकियों को छोड़ना पडा .
यद्यपि गत 25 वर्षों से भारतीय राजनीति में गठबन्धन की राजनीति का अस्तित्व रहा है । लेकिन 21वीं शताब्दी के प्रथम दशक में गठबन्धन की राजनीति ने परिपक्वता प्राप्त कर ली है । अब भारत की राजनीति में गठबन्धन को लोकतंत्र के लिये खतरा नहीं समझा जाता, बल्कि उसे भारत की परिस्थितियों में लोकतंत्र के स्वाभाविक बदलाव के रूप में लिया जा रहा है ।
विरोधी विचारधाराओं के दलों के सरकार में शामिल होने के बावजूद गठबन्धन सरकारों में गत 20 सालों में राजनीतिक स्थिरता भी देखने में आयी है । पिछली गठबन्धन सरकारों ने अपना कार्यकाल पूरा किया है.
यहीं से मांग उठती है मौजूदा चुनावी प्रणाली में सुधार करने की जिसकी आज बहुत आवश्यकता है. विभिन्न समितियों एवं आयोगों ने हमारी चुनाव प्रणाली तथा चुनावी मशीनरी के साथ-साथ चुनाव प्रक्रिया की जाँच की है और सुधार के सुझाव दिये हैं। ये समितियाँ एवं आयोग निम्नलिखित हैंतारकुंडे समिति (वर्ष 1974-75)
चुनाव सुधार पर दिनेश गोस्वामी समिति (वर्ष 1990)
राजनीति के अपराधी करण पर वोहरा समिति (वर्ष 1993)
चुनावों में राज्य वित्तपोषण पर इंद्रजीत गुप्ता समिति (वर्ष 1998)
चुनाव सुधारों पर विधि आयोग की रिपोर्ट (वर्ष 1999)
चुनाव सुधारों पर चुनाव आयोग की रिपोर्ट (वर्ष 2004)
शासन में नैतिकता पर वीरप्पा मोइली समिति (वर्ष 2007)
चुनाव कानूनों और चुनाव सुधार पर तनखा समिति (वर्ष 2010)

हालांकि उपरोक्त समितियों एवं आयोगों की अनुशंसाओं के आधार पर चुनाव प्रणाली, चुनाव मशीनरी और चुनाव प्रक्रिया में कई सुधार किये गए हैं। निम्नलिखित दो कालखंडों में बाँट कर इनका अध्ययन किया जा सकता है।
वर्ष 2000 से पूर्व चुनाव सुधार
वर्ष 2000 के बाद चुनाव सुधार
वर्ष 2000 से पूर्व चुनाव सुधार
संविधान के 61वें संशोधन अधिनियम, 1989 के तहत अनुच्छेद 326 में संशोधन करके मतदान की आयु 21 से घटाकर 18 वर्ष की गई।
चुनाव कार्यों में लगे अधिकारी, कर्मचारियों को चुनाव की अवधि के दौरान चुनाव आयोग में प्रतिनियुक्ति पर माना जाएगा।
इस अवधि में ये कर्मी चुनाव आयोग के नियंत्रण में रहेंगे।
नामांकन पत्रों को लेकर प्रस्तावकों की संख्या में 10 फीसदी का इज़ाफा किया गया।
राष्ट्रीय सम्मान अधिनियम, 1971 का अपमान करने पर 6 साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाना।
दो से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाना और उम्मीदवार की मौत पर चुनाव स्थगित न होना।
इस चरण में अब तक के सबसे बड़े चुनाव सुधारों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) का प्रचलन में आना शामिल है। इसका लक्ष्य चुनावी प्रक्रिया को निष्पक्ष, सटीक और पारदर्शी बनाना है जिससे प्राप्त परिणामों को स्वतंत्र रूप से सत्यापित किया जा सके।
अतः सार्वजनिक क्षेत्र के दो उपक्रमों भारतीय इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (बंगलुरू) और इलेक्ट्रॉनिक्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (हैदराबाद) के सहयोग से भारत के चुनाव आयोग द्वारा EVM को तैयार किया गया।
दिसंबर 1988 में संसद द्वारा कानून में संशोधन किया गया और जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 में एक नई धारा जोड़ी गई जिसमें आयोग को EVM मशीनों के उपयोग का अधिकार दिया गया।
प्रयोग के तौर पर EVM का पहली बार उपयोग वर्ष 1998 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और दिल्ली के चुनावों के दौरान किया गया था।
वर्ष 1999 में गोवा विधानसभा चुनाव में पहली बार EVM का पूरे राज्य में प्रयोग हुआ।
वर्ष 2000 के बाद चुनाव सुधार

  1. एक्ज़िट पोल पर प्रतिबंध
    जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के तहत चुनाव आयोग ने मतदान की शुरूआत होने से लेकर मतदान समाप्त होने के आधे घंटे बाद तक एक्ज़िट पोल को प्रतिबंधित कर दिया है।
    लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में चुनाव के दौरान एक्ज़िट पोल के परिणाम प्रकाशित करने पर दो वर्ष का कारावास या जुर्माना अथवा दोनों सज़ा हो सकता है।
  2. चुनावी खर्च पर सीलिंग
    लोकसभा सीट के लिये चुनावी खर्च की सीमा को बढ़ाकर बड़े राज्यों में 70 लाख रुपए कर दिया गया है वहीं छोटे राज्यों में यह सीमा 28 लाख रुपए तक है।
  3. पोस्टल बैलेट के माध्यम से मतदान
    सरकारी कर्मचारियों और समस्त बलों को चुनाव आयोग की सहमति के बाद पोस्टल बैलेट के माध्यम से मतदान करने की अनुमति है।
    विदेशों में रहने वाले ऐसे भारतीय नागरिकों को मतदान का अधिकार है जिन्होंने किसी अन्य देश की नागरिकता हासिल नहीं की है और उनका नाम किसी भी निर्वाचन क्षेत्र की मतदाता सूची में दर्ज हो।
  4. जागरूकता और प्रसार
    युवा मतदाओं को चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करने हेतु भारत सरकार हर वर्ष 25 जनवरी को राष्ट्रीय मतदाता दिवस के रूप में मनाती है। यह सिलसिला वर्ष 2011 से शुरू हुआ।
    20,000 रुपए से अधिक राजनीतिक चंदे की जानकारी चुनाव आयोग को देना।
  5. नोटा
    वर्ष 2013 से नोटा व्यवस्था लागू करना एक अहम चुनाव सुधार माना जाता है। नोटा का मतलब है उपरोक्त में से कोई नहीं। यानी नन ऑफ द एबव (None of the above)।
    यह व्यवस्था मतदाता को किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में वोट नहीं देने और मतदाता की पंसद को रिकॉर्ड करने का विकल्प देती है।
    पहले जब कोई मतदाता किसी उम्मीदवार को वोट नहीं देने का फैसला करता था तो मतदाता को बूथ के पीठासीन अधिकारी को यह बताना होता था और एक रजिस्टर पर हस्ताक्षर करना होता था। लेकिन इससे मतदाता के वोट आफ सिक्रेट बैलेट के अधिकार को नुकसान पहुँचता था।
  6. मतदाता निरीक्षण पेपर ऑडिट ट्रायल
    यह EVM से जुड़ी एक स्वतंत्र प्रणाली है, जो मतदाताओं को अनुमति देती है कि वे यह सत्यापित कर सकते हैं कि उनका मत उक्त उम्मीदवार को पड़ा है जिसके पक्ष में उसने मत डाला है।
    जब मत पड़ता है तो एक मुद्रित पर्ची निकलती है जिस पर उस उम्मीदवार का नाम रहता है जिसे मत दिया गया है।
  7. तकनीकी का प्रयोग
    निर्वाचकों के लिये कंप्यूटरीकृत डेटाबेस का निर्माण, व्यापक फोटो इलेक्टोरल सेवा, फर्जी और डुप्लीकेट इंट्री को खत्म करने के लिये डी-डुप्लीकेशन तकनीक लाना। मतदान प्रक्रिया की विडियो रिकॉर्डिंग कराना।
    आयोग ने ऑनलाइन संचार यानी कोमेट नाम की एक प्रणाली विकसित की है, इससे चुनाव के दिन प्रत्येक मतदान केंद्र की निगरानी करना संभव हो गया है।
    GPS का उपयोग कर मतदान केंद्रों की अब रियल टाइम निगरानी भी की जा रही है।
    चुनाव आयोग ने चुनाव के दौरान आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन की रिपोर्ट दर्ज़ करने में नागरिकों को सक्षम बनाने के लिये ‘सीविजिल’ एप लॉन्च किया है।
    ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव भारतीय लोकतंत्र की आत्मा हैं।’ इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए आज नहीं तो कल देश में चुनाव सुधार होंगे और देश को गठबंधन की गफलत भरी राजनीति से छुटकारा मिल सकेगा

Advertise with us