अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ अर्बन नक्सल

अतुल गंगवार

अपनी सहुलियत के हिसाब से काम करने वाले अर्बन नक्सल गैंग को एक बड़ी कामयाबी उस समय मिल गई जिस समय उन्होंने दिल्ली दंगों का सच सामने लाती किताब ‘दिल्ली रॉयट्स 2020- द अनटोल्ड स्टोरी’ के प्रकाशन को रोकने में कामयाबी हासिल कर ली। इस किताब को सुप्रीम कोर्ट की वकील मोनिका अरोड़ा, सोनाली चितलकर और प्रेरणा मल्होत्रा ने लिखा है और इसका प्रकाशन ब्लूम्सबरी प्रकाशन से होनेवाला था। शनिवार की दोपहर जब ब्लूम्सबरी ने इसके प्रकाशन को रोकने की घोषणा की, तो तथाकथित स्वघोषित चिंतक विचारकों के गैंग ने अपनी खुशी का प्रदर्शन एक दूसरे को बधाई देते हुए किया।

इस पुस्तक का प्रकाशन रोकने के फैसले की खबर आते ही, लेखक आतिश तासीर ने ट्वीट करके विलियम डेलरिंपल का धन्यवाद किया। आतिश ने लिखा कि वो विलियम डेलरिंपल के आभारी हैं कि उन्होंने इस शर्मनाक स्टेट प्रोपगंडा को रोकने का प्रयास किया, उनके सहयोग के बिना ये संभव नहीं था। आतिश तासीर के इस ट्वीट के बाद ये बात सामने आ गई कि लेखक और जयपुर लिटरेटर फेस्टिवल के डायरेक्टर विलियम डेलरिंपल की इस किताब को रोकने में भूमिका थी। यहां ये जानना भी ठीक होगा कि विलियम डेलरिंपल की किताबों के प्रकाशक ब्लूम्सबरी ही हैं।

किताब को छापने या ना छापने का निर्णय प्रकाशक का होता है। इस मामले में दुर्भाग्यपूर्ण बात ये हैं कि प्रकाशक ने सब कुछ जानते हुए इस पुस्तक के प्रकाशन का कॉंट्रेक्ट साइन किया था। उन्हें पहले से पता था कि किताब का कंटेंट क्या है। किताब के लेखकों की पृष्ठभूमि क्या है। लेकिन अचानक एक लॉबी के दबाव में जिस तरह से उन्होंने अंतिम समय में इसके प्रकाशन से हाथ खींचा वह इसके पीछे किसी बड़े षडयंत्र का होना सिद्ध करता है और जब ये बात सामने आई है इसके पीछे ब्रिटिश नागरिक विलियम डेलरिंपल का हाथ है तो इस बात को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है।

विश्व हिंदू परिषद के प्रवक्ता विजय शंकर तिवारी ने ट्वीट करके विलियम का वीज़ा रद्द करने की बात की, ‘ब्लूम्सबरी इंडिया अब दिल्ली दंगों की किताब नहीं छापेगा, क्योंकि दिल्ली के फॉर्म हाउस में रहनेवाला एक पाकिस्तानी और एक फिरंगी विलियम डेलरिंपल नहीं चाहता। भारत सरकार को इस विदेशी का वीजा रद करना चाहिए।’

उधर इस किताब की लेखिका मोनिका अरोड़ा ने ट्वीटर पर ब्लूम्सबरी को टैग करते हुए लिखा, ‘ब्लूम्सबरी इंडिया, कृपया अपने लेखकों को हाशिए पर मत डालें। हमें कम से कम एक ईमेल तो लिखा होता कि आप हमारी पुस्तक दिल्ली रॉयट्स,2020- द अनटोल्ड स्टोरी का प्रकाशन नहीं कर रहे हैं। आपने सभी प्लेटफॉर्म से इस किताब को हटा दिया है, ताकि लोग इसको पढ़ नहीं सकें। क्या अंतराष्ट्रीय कार्यकर्ता इस बात का निर्णय करेंगे कि भारतीय क्या पढ़े या नहीं पढ़ें?’ साफ है कि मोनिका अरोड़ा भी विलियम डेलरिंपल की ओर ही इशारा कर रही हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एकतरफा नहीं हो सकती। आज सबको ये तो पता ही है किस तरह से तथाकथित बुद्धिजीवियों ने भारत के खिलाफ एक नेरेटिव खड़ा करने का प्रयास किया है। उन्हें ये पता है कि दिल्ली के दंगों में उनके हाथ कई बेगुनाहों के खून से सने हैं। आखिर क्या वजह है कि पहले ब्लूम्सबरी इंडिया ने शाहीन बाग, फ्रॉम अ प्रोटेस्ट टू अ मूवमेंट नाम की पुस्तक का प्रकाशन किया जो अगर हम बुद्धिजीवियों के नज़रिए से देखें तो एकतरफा है लेकिन इस पुस्तक के प्रकाशन को लेकर किसी ने भी कोई उंगली नहीं उठाई। वहीं जैसे ही दूसरे पक्ष का नेरेटिव सामने आया तो तमाम बुद्धिजीवी जाग गए और पुस्तक के प्रकाशन पर रोक लगवा दी। दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि इस लड़ाई में प्रकाशन संस्था ने भी हिस्सा ले लिया है। लेकिन क्या इससे इस किताब का सच बाहर आने से रुक जायेगा?

मोनिका अरोड़ा का कहना है किताब तो छपेगी। उन्हें अगर उसे मुफ्त भी बांटना पड़ा तो भी सच को सामने लाने के लिए वो ये भी करेंगी। दिल्ली के दंगो का सच सामने आकर ही रहेगा।

देश में स्वयंभू बुद्धिजीवियों की दुकाने बंद हो रही हैं। अब वो टुच्ची हरकतों पर उतर आयें हैं। अभी तक जो वो लिखते थे, दिखाते थे वही सच होता था। उन्हें जवाब सुनने की आदत नहीं हैं। लेकिन अब वक्त बदल रहा है और इस बदलते वक्त में सही सुनने की आदत डालनी होगी। आज देश में आप नफरत फैला कर मासूम नहीं बने रह सकते। दिल्ली में सुनियोजित तरीके से दंगा फैला कर दंगाईयों को विक्टिम बनाने का खेल अब नहीं चलेगा। सच तो सच है वो सामने आकर रहेगा।

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