बिहार में कॉन्ट्रैक्ट शिक्षकों को चुनावी तोहफ़ा क्या वोट में बदल पाएगा?

मनीष वत्स

आज बात करते हैं वर्तमान बिहार में शिक्षा की स्थिति की। कभी ज्ञान का सागर कहा जाने वाला बिहार! वो बिहार जिसने भगवान बुद्ध को बुद्धत्व का ज्ञान दिया, वो बिहार जहां नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय उस युग में हुआ करते थे, जिस युग में संसार ने विद्यालयों की कल्पना भी नहीं की होगी। नालंदा विश्वविद्यालय जहां हजारों विदेशी छात्र शिक्षा ग्रहण करने को आते, उसी बिहार की शिक्षा की वर्तमान स्थिति पर चर्चा करते हैं।

बहुत सारी बातें हैं, परत दर परत उघाड़ी जाएं तो शायद प्याज साबित होगा क्योंकि परतें कम नहीं होंगी । खैर! छोड़िए, कल एक चचा से बात हो रही थी, दरअसल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कैबिनेट ने नियोजित शिक्षकों को सेवा शर्त और वेतन में 22% वृद्धि की मंजूरी दी है, इसी विषय पर चचा से बात हो रही थी। हमने पूछा, चचा, अब तो बिहार की शिक्षा व्यवस्था में सुधार होकर रहेगा ? चचा, ने इधर-उधर देखा, मुंह बनाया फिर बोले- बिहार की शिक्षा व्यवस्था मरणासन्न है, और मुर्दे को जिंदा करना सम्भव नहीं, अब तो बस अर्थी बनाने के लिए पैसे बढ़ाए हैं।

जी हां, सही कहा था, उस बूढ़े व्यक्ति ने, बिहार की शिक्षा व्यवस्था मरणासन्न है, चाहे नीतीश उसमें सेवा शर्त और वेतन वृद्धि का संजीवनी मंत्र क्यों न फूंक दें, बहुत कुछ होने वाला नहीं।

क्यों ध्वस्त हुई बिहार की शिक्षा प्रणाली?

किसी भी देश, राज्य, स्थान की शिक्षा उस क्षेत्र में मौजूद शिक्षकों की विद्वता पर निर्भर करती है। छात्र/बच्चों को सही दिशा, समुचित शिक्षा विषय पर जानकारी रखने वाले शिक्षक ही प्रदान कर सकते हैं, परन्तु क्या होगा जब किसी प्रदेश के ज्यादातर शिक्षकों को शिक्षा का मतलब ही नहीं पता हो? क्या होगा जब शिक्षक अपने पढ़ाने के मूल कार्य को छोड़कर हर कार्य करने को जाते हों।
जी हां, बिहार में यही होता है।
बिहार के ज्यादातर विद्यालय मिड-डे-मिल के घोटाले का अड्डा बन चुके हैं, और उसमें सिर्फ शिक्षक ही नहीं, अपितु ऊपर तक के साहब भी सहभागी हैं।

वर्ष 2006 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने पहले कार्यकाल में शिक्षक नियुक्ति नियमावली बनाई थी।
“सर्टिफिकेट लाओ-नौकरी पाओ-शिक्षक बन जाओ” यही थी बिहार में 2006 शिक्षक नियोजन नियमावली । इस नियमावली के तहत लाखों शिक्षकों की नियुक्तियां हुईं। ये नियुक्ति करने वाले कौन थे, और किन लोगों की नियुक्तियां हुईं, यदि सिर्फ इस बिंदु पर ही गौर करें, तो सारा खेल सामने आ जाएगा।

2006 में करीब 25-30 साल बाद बिहार में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव हुए, ज्यादातर मुखिया, प्रमुख, और जिला परिषद सदस्य सत्तारूढ़ दल के संरक्षण में चुनाव जीते, हालांकि चुनाव दलीय आधार पर तो नहीं था, पर इसमें कोई दो राय नहीं कि इन चुनावों में किन्हें पंचायत स्तर पर सत्ता मिली होगी, कहने की जरूरत नहीं है।

पंचायत चुनाव खत्म होते ही, नीतीश “सर्टिफिकेट लाओ- नौकरी पाओ” फार्मूला लागू करते हैं और बहाली का जिम्मा मुखिया, प्रमुख और जिला परिषद को सौंपते हैं। फिर चालू होता है भ्रष्ट्राचार का नंगा खेल। लाखों रुपए ले-लेकर फर्जी शिक्षक बहाल किए जाते हैं, फर्जी सर्टिफिकेट का धंधा चलता है, फर्जी डिग्रियां बनती हैं। साइकिल से चलने वाले मुखिया जी मार्शल खरीदते हैं, प्रमुख साहब मोटर साइकिल से बोलेरो सवार और जिला परिषद जी स्कार्पियो के मालिक बन जाते हैं। प्रखण्ड संसाधन केंद्र दलाली का अड्डा बनता है और बूढ़े-रिटायर होते मास्टर दलाल। इन सबके बीच खत्म हो जाती है शिक्षा।
नए मास्टर स्कूल जाते हैं, सैयां भए कोतवाल अब डर काहे का। मुखिया जी अपने हैं, फिर क्या पढ़ाना क्या लिखाना ? बाकी प्रखण्ड संसाधन केंद्र तो है ही अपना।
पिसने लगे गरीब के बच्चे, जिन मां-बाप के पास थोड़ी सी भी जमा पूंजी रही, उन्होंने अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल शिफ्ट कर दिया, जिनके पास पैसे नहीं थे, उनके बच्चे स्कूल में सड़ी खिचड़ी खाने लगे।

बाकी भवन निर्माण, पोषाहार, साइकिल, स्कूल ड्रेस कई तरह की सरकारी योजनाएं माट साब के लिए मंहगाई भत्ते का काम करती रहीं और शिक्षा व्यवस्था मरणासन्न हो गई।

नीतीश जी ने एक पेड़ लगाया था, वो उसके फलने का इतंजार कर रहे थे, 15 साल हो गए, पेड़ पर फूल लगने लगे थे, तभी आंदोलन जैसे कीड़े पेड़ में लगने लगे, कोई भी किसान कैसे बरदाश्त करेगा, सो उन्होंने इन शिक्षक रूपी पेड़ पर सेवा शर्त, वेतन वृद्धि जैसे कीटनाशकों का छिड़काव किया है, नीतीश जी को लग रहा है कि शायद वो अंतिम पारी खेल रहे हैं, ऐसे में अपने लगाए पेड़ के फल खा लें, ताकि बुढापा धन्य हो जाए।

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