कुसंस्कृति का भौंडा प्रदर्शन : बंदिश बैंडिट्स

डॉ. अरुण सिंह

हाल ही में अमेज़न प्राइम पर “बंदिश बैंडिट्स” वेबसीरीज़ का पहला सीजन प्रदर्शित हुआ है। निर्देशक और लेखकों ने राजस्थानी (मारवाड़ी) संस्कृति का जो अविश्वसनीय, काल्पनिक और भौंडा प्रदर्शन किया है, वह ध्यान देने योग्य है। हिंदी सिनेमा में प्रायः ऐसा होता रहा है। यह वेबसीरीज़ राजस्थान के पारंपरिक नगर जोधपुर में अवस्थित है। शास्त्रीय संगीत को आधार बनाया गया है, परन्तु निर्माता- निर्देशकों का मंतव्य कुछ और ही है। यही घात साहित्य में भी होता रहा है। लोक-संस्कृतियों का स्वरूप बिगाड़ा जाता रहा है। बंदिशों का प्रयोग तो अटपटा है ही, परन्तु भाषागत जड़ें भी लुप्त हैं। वस्तुतः, देखा जाए तो कोई भी चरित्र मारवाड़ी भाषा के लहजे तक को पकड़ने में सक्षम नहीं है। ऊपर से जो फूहड़ संवाद प्रयोग में लाये गए हैं, वे पूरी तरह फरीदाबाद अथवा दिल्ली के लगते हैं। ऐसी वीभत्स गालियाँ राजस्थानी नहीं बोलते। जोधपुर का निवासी हिंदी भी एक विशेष मारवाड़ी लहजे के साथ बोलता है। दो-चार चरित्र भी लहजे को पकड़ते तो थोड़ा विश्वसनीय बनता। पूरा कथानक ही नब्बे के दशक की व्यावसायिक फिल्मों की भाँति यथार्थवादी दृष्टिकोण से परे लगता है। भाषा, संस्कृति, इतिहास आदि का अध्ययन किये बिना ही ऐसा सिनेमा बन सकता है। एक गंभीर विषय को हास्यास्पद और जड़विहीन बनाकर छोड़ दिया गया है। इस सब विद्रूपता के पीछे कारण भी हैं। प्रमुख भूमिकाओं में राजस्थानी/उत्तर भारतीय कलाकारों की अपेक्षा नवोदित बंगाली कलाकारों को लिया गया है। शहरी संस्कृति जोधपुरी के बजाय मुम्बईया दिखाई देती है।

किसी पॉप स्टार का खुले में अर्धनग्न प्रदर्शन जोधपुर में तो अप्रासंगिक ही लगेगा। इसके अतिरिक्त, यह विचित्र विडम्बना है कि राजस्थान में अवस्थित फिल्मों में राजस्थानी लोक-संगीत को स्थान नहीं मिलता। ठुमरी के बोलों में राजस्थानी (मारवाड़ी) का प्रयोग नहीं है, जबकि इस विधा का उद्गम लोक-संगीत से ही हुआ है। शास्त्रीय तथा आधुनिक (पाश्चात्य) पॉप संगीत में एक अस्तित्ववादी संघर्ष तो दिखाया गया है, परंतु शास्त्रीय संगीत की सार्थकता को सिद्ध करने का प्रयास लेखक-निर्देशक नहीं करते। बहुत अधिक सजावट और भड़काऊपन में मूल सांस्कृतिक सहजता व सरलता कहीं खो गयी है। शास्त्रीय संगीत की अपनी विशाल महत्ता है। इसके महत्व और सार्थकता को कमतर दिखाना अथवा कमतर नहीं दिखाने का ढोंग करना दोनों ही निंदनीय हैं। बंदिशों की बात की जाए तो उनमें राजस्थानी विषय, लोक-संगीत, इतिहास, संस्कृति कहाँ हैं? ऐसा लगता है पंडित जी लखनऊ या बनारस घराने के प्रणेता हों। शीबा चड्डा और राजेश तैलंग के चरित्र लाज बचाने का काम करते हैं। नायक के मित्र के रूप में कबीर नामक चरित्र नितांत ही घृणित है।

डॉ. अरुण सिंह, सहायक आचार्य,

अंग्रेज़ी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर।

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