ज़िम्मेदारी का अहसास कराती ‘आज़मगढ़’-दीपक दुआ

21वीं सदी के शुरुआती दिनों में उत्तर प्रदेश का आज़मगढ़ जिला आपराधिक गतिविधियों और यहां के कुछ लोगों के आतंकी कनैक्शनों के चलते अक्सर देश-विदेश में चर्चित रहता था। यह वह समय था जब हर दूसरे दिन देश में कहीं न कहीं बम फटते थे और कुछ भटके हुए लोग इस्लाम के नाम पर उन विस्फोटों की ज़िम्मेदारी लिया करते थे। लेखक-निर्देशक कमलेश कुमार मिश्र की यह फिल्म उसी समय, उन्हीं लोगों और हालातों को दिखा रही है।

आज़मगढ़ का युवक आमिर इंटर की परीक्षा में पूरे राज्य में अव्वल आया है। उसी दिन आज़मगढ़ का एक बाशिंदे को पुलिस पकड़ती है। कहने को वह मौलवी है लेकिन मज़हब की आड़ में वह असल में भोले-भाले नौजवानों को जिहाद की राह पर चलने के लिए उनका ब्रेनवॉश करता है। आमिर को भी एक युवक ताना देता है कि एक दिन वह भी आतंकवादी बनेगा क्योंकि आज़मगढ़ की धरती अब शिबली नोमानी, कैफी आज़मी, राहुल सांकृत्यायन जैसे विद्वान नहीं, आतंकवादी पैदा करने लगी है। यह बात आमिर को चुभ जाती है और सचमुच एक दिन इस राह पर निकल पड़ता है। किस से बदला लेगा वह…?

मात्र डेढ़ घंटे की इस फिल्म को उर्दू का सैंसर सर्टिफिकेट मिला है। फिल्म की भाषा में उर्दू का ज़ोर है भी, लेकिन यह उर्दू इतनी गाढ़ी नहीं है कि आम दर्शक को समझ ही न आए। फिल्म चूंकि काफी पहले बन चुकी थी इसलिए एक किस्म का ‘बासीपन’ इसमें झलकता है। फिर इसमें जिस तरह से टी.वी. की खबरों का बार-बार इस्तेमाल किया गया है वह भले ही इसके असर को बढ़ाने और कहानी को आगे जाने का काम करता हो लेकिन इन दृश्यों की अधिकता से फिल्म की रोचकता कम भी होती है। बहरहाल, बतौर लेखक जहां-जहां कमलेश मिश्र कमज़ोर पड़े, एक निर्देशक के तौर पर उन्होंने फिल्म को संभाल लिया। दृश्यों की संरचना करने और नए व हल्के कलाकारों से बढ़िया काम निकलवाने की उनकी प्रतिभा ने इस फिल्म को पटरी पर बनाए रखा है। शॉर्ट-फिल्म में राष्ट्रीय पुरस्कार पाने के बाद पहली बार फीचर के मैदान में उतरे कमलेश के काम में संभावनाएं दिखती हैं। हां, संवाद थोड़े और दमदार होते तो फिल्म मारक हो सकती थी।

यह वही फिल्म है जिसे लेकर कुछ समय पहले अभिनेता पंकज त्रिपाठी और निर्माता के बीच विवाद हुआ था। लेकिन फिल्म में यदि सबसे दमदार काम किसी का है तो वह सिर्फ और सिर्फ पंकज त्रिपाठी ही हैं। अपने किरदार को समझ कर अपने भीतर से सर्वश्रेष्ठ देने की उनकी ललक ही उन्हें बेहद प्रतिभाशाली अभिनेताओं की कतार में जगह देती है। गीत-संगीत अच्छा है। दरगाह पर फिल्माया गया गीत जंचता है। प्रताप सोमवंशी ने इसे लिखा भी जम कर है। बैकग्राउंड म्यूज़िक बहुत असरदार है। फिल्म का सीमित बजट इसके दृश्यों में झलकता है। एक नए ओ.टी.टी. ऐप ‘मास्क टी.वी.’ पर इस फिल्म को देखा जा सकता है। इस ऐप को इस लिंक पर क्लिक करके डाउनलोड किया जा सकता है। फिल्म का पहला ट्रेलर देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें और दूसरा ट्रेलर देखने के लिए इस लिंक पर ।

यह फिल्म मनोरंजन नहीं देती है। मनोरंजन के मकसद से इसे बनाया भी नहीं गया है। यह फिल्म असल में ज़िम्मेदारी का अहसास देती है-उन नौजवानों को जिन्हें अपने मुल्क से मोहब्बत है। यह बताती है वतन से ऊपर कुछ भी नहीं होता, कुछ भी नहीं।

रिव्यू-ज़िम्मेदारी का अहसास कराती ‘आज़मगढ़’ – Cine Yatra

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