मोदी सरकार ने चुनाव का बिगुल बजा दिया है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जो बजट पेश किया है उसमें गांव, गरीब किसान पर सरकार खास मेहरबान दिख रही है। थोड़ा वित्तीय घाटा बढ़ेगा लेकिन उसको लेकर सरकार खास चिंतित नजर नहीं आ रही है। चुनाव के लिए इतना रिस्क लेना बनता भी है। लेकिन सवाल ये है कि किसानों और गरीबों के लिए करीब दर्जन भर वादे किए गए हैं क्या उनको पूरा करने का इंतजाम है और क्या ये लोग उससे खुश होंगे। इसी सवाल पर राजनीति और कारोबार जगत के दिग्गजों के साथ चर्चा होगी, लेकिन उससे पहले देखते हैं बजट के बड़े फैसले और कुछ अनसुलझे सवाल।
50 करोड़ लोगों को फायदा पहुंचाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य सुरक्षा योजना, 8 करोड़ गरीबों को रसोई गैस और 4 करोड़ घरों को मुफ्त बिजली, किसानों को लागत से 1.5 गुना कीमत, बुजुर्गों को इनकम टैक्स में राहत, इंफ्रास्ट्रक्चर पर 5 लाख 35 हजार करोड़, राष्ट्रपति, सांसदों से लेकर गवर्नर के वेतन में वृद्धि। यानि गांव, गरीब, किसान से लेकर देश के राष्ट्रपति तक को खुश करने की कोशिश। वैसे प्रधानमंत्री ने इसे विकास का बजट बताया है।
लेकिन क्या पिछले कुछ दशक में बहुत बड़े तबके के रूप में जिस मिडिल क्लास ने पहचान कायम की है उसे ये बजट साध पाएगा। इनकम टैक्स में 40 हजार का डिडक्शन और उल्टे हाथ हेल्थ एंड एजुकेशन सेस में 1 फीसदी का इजाफा, ऊपर से शेयर बाजार में निवेश पर टैक्स, ये मिडिल क्लास की नाराजगी का विषय बन सकता है। युवाओं के रोजगार के सवाल का भी कोई साफ उत्तर नहीं मिला। दूसरी तरफ वित्त मंत्री ने कहा है कि सरकार अब ईज ऑफ डूइंग बिजनेस से ईज ऑफ लिविंग की तरफ कदम बढ़ा रही है। साफ है कि सरकार का फोकस अब लोगों को अच्छे दिन का एहसास दिलाने पर है। लेकिन पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के मुताबिक ये घातक होगा क्योंकि सरकार वित्तीय घाटे का लक्ष्य नहीं साध पाई और वित्तीय घाटा 3.2 फीसदी के लक्ष्य के मुकाबले 3.5 फीसदी रहा है। सवाल उठता है कि रिफॉर्म और वित्तीय अनुशासन की जगह लोकप्रिय घोषणाओं की तरफ झुकाव क्या चुनावी तैयारियों और जल्द चुनाव का संकेत है? और क्या ये घोषणाएं सरकार को वोट दिला पाएंगी!