एक धड़ाम, जिससे साफ़ हुआ राम मंदिर का रास्ता। 28 साल पहले बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर!!

रवि पाराशर

देश में जब राम मंदिर के नए युग को लेकर चर्चा चल रही है, तब मुझे 28 साल पहले छह और सात दिसंबर की घटनाओं की याद आ रही हैं। पत्रकारिता में आए तीन साल से ज़्यादा हो चुके थे और छह दिसंबर, 1992 को मैं जयपुर में था। मेरे ज़ेहन में आज भी उस दिन की याद हू-ब-हू ताज़ा है। तब प्रकाशित हुआ मेरा लेख पढ़िए कृपया-
6 दिसंबर, 1992
गठरियों आशंकाएं लादे अजीब तरह की बोझिल सुबह। हवा सर्द, लेकिन… । इस ‘लेकिन’ का कोई आकार नहीं, प्रतिबंब नहीं, लेकिन फिर भी ‘लेकिन’।
खुली खिड़की से आकर बिस्तर पर सिरहाने की तरफ़ सपरिवार पसर चुका धूप का एक गुनगुना चकत्ता मुद्दत बाद अच्छा नहीं लगा। उसे सहला कर हथेली पर रोज़ की तरह सूरज महसूस करने का मन नहीं हुआ। महसूस हुआ कि हमेशा खिड़की खोलकर सोना अच्छा नहीं। तब तो और भी, जब खिड़की तंग अंधेरी गली में खुलती हो और उसके सामने लगा स्ट्रीट लैंप मुहल्ले के अर्जुनों के लिए चिड़ियां की आंख हो। पूरी तरह जग जाने के बाद भी सोते रहने की निस्पृह और निरीह विवशता कमरे में तैर रही थी। उससे बिल्कुल सटकर तैर रहे थे अनगिनत सहमे-सिकुड़े कान और सूजी हुई डबडबाई असंख्य आंखें। असंख्य आंखें, ख़त्म होने की नहीं, होने की दहशत से तर-ब-तर। अंदर की नदी झील खारी झील में तब्दील होकर आंखों की बाबड़ी में समा चुकी थी। पत्नी से खिड़की बंद करने के लिए बहुत धीमे से कहने से पहले मैंने रजाई में मुंह छिपा लिया था। उन्होंने सुना नहीं, मैंने दोबारा कहा नहीं। काफ़ी देर तक मैं सुनता रहा था धूप के चकत्तों का सिरहाने से सरक कर रजाई पर रेंग उठने का शोर आंखें बंद किए हुए।
पता नहीं क्यों बहुत से परिचित चेहरे रंग-बिरंगे अंधेरे में कुलबुला उठे थे एक साथ। सभी पूरे के पूरे, लेकिन फिलहाल गड्डमड्ड। संदर्भहीन। लगा जैसे याद का विराट आइना अदृश्य और असंख्य ध्वनि तरंगों की राह में आकर दरक गया था। सारे चेहरे अतीत की समाधि से निकलकर तब के वर्तमान की सतह पर आकर चुपचाप कुछ तलाशते हुए लग रहे थे। हर एक मिट्टी सने हाथ की उंगलियों के नाखून नज़र नहीं आ रहे थे। आइने की तिड़की हुई स्थिर छाती के हर कालखंड पर अलग स्वरूप एक ही आदमी का। आइना व्यष्टिगत प्रक्रिया होता है और उसका दरकना व्याख्या से परे। बहरहाल, जब बाहर से घबराकर भीतर के शून्य में जाने के लिए आंखें बंद कर ली जाएं और अंदर ज़्यादा गड़बड़ी नज़र आए, तब आंखें खोल लेना ही ठीक होता है। मैंने न केवल आंखें खोलीं, बल्कि मुंह भी रजाई से बाहर निकाल लिया था। वह बेचैन करने वाली सर्द सुबह थी।
पत्नी जाने कब चाय मेज़ पर रखकर दोबारा रसोई में व्यस्त हो गई थीं। कप से बहुत कम उठ रही भाप से लगा कि जगने के बाद शायद मैं दोबारा सो गया था। भाप आपका इंतज़ार नहीं करती। ऐन भाप के साथ-साथ अगर आपके भीतर भी कुछ ठंडा पड़ता जा रहा हो, तो अख़बार सिर्फ़ ऐसा काग़ज़ दिखाई देता है, जिस पर बस कुछ छपा हुआ होता है। ऐसे में दोबारा चाय गर्म करने के लिए मुंह से जो आवाज़ निकलती है, वह पत्नियों के कानों तक अक्सर नहीं पहुंचती। भाप को चुकते हुए देखकर सुबह के सर्द होने का सीला हुआ एहसास फिर दहका और पलाश में बदल गया था। पलाश के इर्द-गिर्द एक क्षितिज। क्षितिज हर दिशा और काल में, लेकिन कहीं नहीं होता, कुछ नहीं होता। एक बिंदु, जो आपके अस्तित्व के समांतर हर ओर दिखाई देता है, लेकिन होता नहीं। बहरहाल, कहीं कुछ था, जो सुबह के सिर पर लदकर आई आशंकाओं को लगातार पछींट रहा था विश्वास के शाश्वत स्फटिक पर। शायद रसोई से आ रही बर्तनों की खट-पट और साथ-साथ कोई घरेलू गीत गुनगुनाने की आवाज़ या अबोध बेटे की फ़र्श पर उतर गए धूप के टुकड़ों को मुट्ठी में बंद करने की तन्मय कोशिश। या फिर बाहर बिजली के तार पर बैठे कुछ कबूतर। कुछ था ज़रूर। कुछ ज़रूर था।
वह छह दिसंबर, 1992 की सुबह थी। कोई सुबह जब इस तरह किसी ‘कुछ’ तक पहुंच जाती है, उसका पूरा दिन कपूर के एक कण की तरह झटके से उड़ जाता है और फिर रात बहुत लंबी और काली हो जाती है। स्फटिक पर पिट-पिट कर आशंकाओं का लबादा तार-तार हो चुकता है या स्फटिक को तोड़-फोड़ कर ख़ुद निखर उठता है। काल के कैनवास पर रात और दिन को अलग-अलग बांटकर उकेरने वाली अदृश्य तूलिका अस्तित्वहीन हो जाती है। अंधेरे और उजाले का भेद ख़त्म हो जाता है। आंखों में पथराने और लरज़ने की प्रक्रिया तेज़ी से एक साथ घटती है।
छह दिसंबर, 1992 की रात को लाख चाहने के बाद भी नींद नहीं आई थी। याद आते रहे मां-बाप, भाई-बहन और यार-दोस्त। नौकरी के लिए घर से निकले तीन साल हो चुके थे। मेरा छोटा सा परिवार जयपुर में था और मेरा बड़ा परिवार यूपी के सहारनपुर में। बहुत बार इस दूरी ने परेशान किया था। लेकिन उस सुबह बेचैनी ज़्यादा थी। किसी आशंका की वजह से नहीं, यों ही। रात भर अपने कमरे में अपने शहर की गंध तलाशता रहा। नहीं मिली। छटपटाहट और बढ़ गई। कई बार जब आप अपने शहर और अपने घर को ख़ुद में टटोलते हैं, तब अक्सर वह पूरा का पूरा हाथ नहीं लगता। पकड़ में आते हैं एक या कुछ हिस्से। ऐसे में आप शहर में से अपने घर का अंश छांटकर अलग कर सकते हैं। लेकिन 23 साल पहले के छह दिसंबर की उस रात अपना पूरा शहर मुझे अपने भीतर मुझको ही टटोलता महसूस हुआ था। तमाम जद्दोजहद और गणित के बावजूद स्याही के रोशनी में ढल जाने तक मैं शहर में से अपना घर नहीं बीन सका था। शहर को घर में और घर को शहर में इतना गड्डमड्ड मैंने दोबारा कभी नहीं देखा। सुबह होते-होते अंदर पता नहीं क्यों, पता नहीं क्या पूरी तरह टूट-फूट चुका था नि:शब्द।
अब सात दिसंबर, 1992 की सुबह सामने थी। गोली के धमाके के साथ ही हुई लाल आंखों के सामने कत्थई अंधेरा छा गया। गोली का धमाका! बाहर से नहीं, अंदर से। खिड़की पिछली रात से ही खुली हुई थी। मैंने धूप के खरगोशों को डरते-डरते छुआ। उनमें गर्मी बरकरार थी या फिर मैं तादाद से ज़्यादा ठंडा हो चुका था। किसी आशंका से मैंने खिड़की बंद कर दी थी।
सुबह दस बजे जाकर बेटे के लिए दूध का पाउडर ख़रीद लाया। शाम तक पता नहीं क्यो हो! पत्नी के ऐतराज़ किया था। क्या ज़रूरत थी सौ रुपए बर्बाद करने की? कुछ नहीं होगा, सब ठीक रहेगा। बेकार में डरते हैं। पत्नी का यह कहना उस वक़्त संवेदना को इस क़दर आश्वस्त कर गया कि दूध पाउडर का डिब्बा वापस करने का मन बन गया। फिर लगा कि महीने का पहला हफ़्ता ही तो है, सौ रुपए का अतिरिक्त बोझ झेला जा सकता है। मन किया कि बार-बार दुकान तक जाऊं और रुपए ख़त्म होने तक दूध के डिब्बे लाता रहूं। ….कुछ नहीं होगा, बार-बार सुनने के लिए। लेकिन अपने इस बचकाने ख़याल पर हंसी नहीं आई। बहुत देर से अख़बार के शीर्षक को हाथ में उठाने की ईमानदार कोशिश में लगे और क़रीब-क़रीब झुंझला चुके बेटे को गोद में उठाकर मैंने धीरे से पत्नी से पूछा था कि क्या उन्हें वाक़ई लगता है कि कुछ नहीं होगा? उन्होंने कुछ नहीं कहा और अख़बार को घूर रहे बेटे को मेरी गोद से लेकर वापस अख़बार के पास बैठा दिया। वह फिर मुहिम पर लग गया। मुझे लगा कि सवाल अंदर से बाहर आया ही नहीं था। पत्नी कैसे जवाब देतीं?
थोड़ी देर बाद पता चला कि जयपुर शहर के भीतरी हिस्से में कर्फ्यू लगा दिया गया था। कुछ लोग मारे गए थे। काफ़ी घायल थे। अख़बार के दफ़्तर की तरफ़ जाते साफ़ दिखाई दिया कि सात दिसंबर, 1992 को सड़क डरी हुई थी और ज़्यादा तेज़ी से भाग रही थी। हर एक के पास कुछ अफ़वाहें थीं। पसीने या ख़ून से तर-ब-तर। सारी अफ़वाहें एक-दूसरे से सावधान, चौकन्नी। उस वक़्त का मेरा शहर सहारनपुर एक बार फिर मुझमें कुलबुलाया। माहौल का पलायन कई बार बिल्कुल हमशक्ल हो जाता है। बाहर से भीतर की ओर पलायन।
अफ़वाहों के मकड़जाल से गुज़रता हुआ ऑफिस पहुंचा। कुछ साथी कर्फ्यूग्रस्त जयपुर के हालात की रिपोर्टिंग के लिए निकल रहे थे। डेस्क पर होने के बावजूद मैं भी जीप में बैठ लिया था। सुनसान को जीते हुए हम एक थाने में पहुंच गए। अफ़सर के कमरे में पहुंचे ही थे कि गोली के धमाके की आवाज़ आई। मैंने पूछा कि क्या वास्तव में यह आवाज़ राइफ़ल की गोली की है? अफ़सर तपाक से बोला- नहीं-नहीं मेरे इलाक़े में नहीं चली गोली। तब पहली बार पता चला कि कुछ लोगों के लिए आवाज़ों के भी इलाक़े होते हैं।
सन्नाटा दहशत को कई गुना कर देता है। दहशत, जो भीतर से बाहर आती है। पलायन के ठीक विपरीत। थाने से बाहर आते हुए गोली चलने की आवाज़ फिर सुनाई पड़ी थी। अचानक मुझे लगा कि आसपास बहुत कुछ बदल गया था। लगा कि मैं एक बहुत जानी-पहचानी जगह पर खड़ा था। हवा में दहशत की दुर्गंध को मैं पहचानता था। गोली की एक और आवाज़ ने सब साफ़ कर दिया था। मेरे आसपास उग आया माहौल तब के मेरे शहर सहारनपुर का ही तो था। शायद किसी ने मेरे क़स्बे से चारों और शीशमहल बना दिया था। सहारनपुर में हुए दंगों में भी तो मुझे गोली की आवाज़ इसी तरह सुनाई पड़ी थी। वहां भी ऐसे ही चेहरे खिड़कियों से झांक रहे थे दहशत से भरे हुए। वहां भी मरे थे लोग और जलते मकानों का काला धुंआ बिल्कुल इसी तरह ऊपर की ओर उड़ रहा था। कुछ फ़र्क नहीं यहां और वहां में। अफ़सर के लिए न सही, एक आदमी के लिए गोली की आवाज़ का कोई इलाक़ा नहीं हो सकता। दहशत इलाक़ों की नहीं, सबकी होती है एक साथ पूरी तरह। कर्फ्यू एक सा होता है सब जगह। फिर क्या फ़र्क पड़ता है कि आप सहारनपुर में हों या जयपुर में या फिर किसी और जगह। मैं बेकार में तीन साल तक परेशान रहा था।
सात दिसंबर, 1992 की उस शाम को जयपुर में किराए के मकान की ओर लौटते हुए मैं बहुत बड़े मानसिक तनाव से मुक्त था। तब के अपने शहर सहारनपुर की गिरफ़्त से निकल भागना इतना आसान हो जाएगा, मैं यह सोच भी नहीं सकता था। बंधन भी इस तरह ढीले हुए थे कि कहीं कोई खरोंच नहीं, निशान नहीं था। 27 साल पहले गोली की एक आवाज़ की वजह से मोहमुक्त हो जाने के इस निजी स्वार्थ के लिए मुझ स्वार्थी को क्षमा करें। अब मैं यूपी के ग़ाज़ियाबाद में बस गया हूं। मां अब नहीं रहीं, बेटा 28 साल का और बेटी 24 साल की हो गई है। लेकिन छह और सात दिसंबर हर साल आते हैं और जयपुर में सुनाई पड़ी गोली की वह आवाज़ मेरे ज़ेहन में आज भी कभी-कभी गूंजती रहती है। अब मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि मैं कहां रह रहा हूं और मेरा असल पुश्तैनी घर कहां है।

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