मातृत्व बोझ नहीं सुखद अहसास, शादी की उम्र 18 या 21 साल !

अनीता चौधरी

बच्चियों की शादी की उम्र को लेकर एक बहस सी छिड़ गयी है , चर्चा एक बार फिर तेज हो गयी है |आखिर क्या होनी चाहिए बालिकाओं की शादी के नियामक उम्र | उम्र को लेकर चर्चा तब से और सुर्खियों में ज्यादा है जब से 74वे स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किला के प्राचीर से प्रधान मंत्री ने ऐलान किया कि सरकार बालिकाओं की शादी के उम्र को लेकर भी मंथन कर रही है | सवाल ये है की आखिर लड़कियों के शादी की उम्र क्या होनी चाहिए 18 साल जो मौजूदा समय में कानून है या 21 साल जो परिपक्वता का सूचक है | ध्यान देने वाली बात ये है की अभी कानूनन लड़कियों के शादी की उम्र 18 साल है और लड़कों की 21 साल | लड़कियों की शादी के उम्र को लेकर सबकी अलग अलग राय है । मगर मौजूदा समाज ,शिक्षा और व्यवसाय के बदलते परिवेश में महिलाओं की सहभागिता अगर देखें तो शादी के उम्र पर चल रही मंथन में उम्र सीमा बढ़ाना अनिवार्य लगता है | सिर्फ शिक्षा के लिहाज़ से ही देखे , खास कर जो नयी शिक्षा निति आयी है तो उम्र सीमा बढ़ाने का ये कदम जरूरी हो जाता है ,मसलन अगर कोई बालिका स्कूल जा रही है तो 10वीं की परीक्षा में बैठने की न्यूनतम आयु 15से 16 साल है और 18 साल की उम्र में वो बच्ची महज़ 12वीं पास होती है | ऐसे में बच्चियों को लेकर भारतीय माता पिता की सोच को अगर देखें तो है बेटी उन्हें एक सामाजिक ज़िम्मेदारी के रूप में नज़र आती है , महज़ 18 साल की स्कूल पास बच्ची की जिम्मेदारी से वो मुक्त होना चाहते हैं | और समाज की तरफ नैतिक ज़िम्मेदारी की दुहाई देते हुए वो उस महज़ 18 साल की उम्र में शादी कर देते है | वो स्कूल पास लड़की पारिवारिक और सामाजिक ज़िम्मेदारियों में महज़ 18साल की आयु में बांध जाती है | इसका नतीजा ये होता है की उसकी पढाई छूट जाती है , वो हायर एजुकेशन के लिए कॉलेज नहीं जा पाती और अगर भविष्य में कोई भी अनहोनी उसके साथ होती है तो उसके लिए स्वालम्बी होने का डगर थोड़ा कठिन हो जाता है | क्योंकि एक स्कूल पास के लिए सम्मान जनक रोजगार के दायरे कम है | बात सिर्फ यही नहीं है एक तरफ हम जहाँ इस बदलते परिवेश में लड़का और लड़की को सामान निगाह से देखने की बात करते हैं , लड़कियां कंधे से कन्धा मिला कर लड़कों के साथ चल रही हैं , लड़ाकू विमान से लेकर ,तोप सब चला रही हैं , जिस देश की वित्त मंत्री महिला हो वो भी उच्च शिक्षा के साथ उस देश की बेटियां अगर कॉलेज जाने से वंचित रह जाएँ तो उम्र सीमा को लेकर मंथन जरूरी है | बात सिर्फ इतनी सी भी नहीं आज इस देश की आधी आबादी की ज़िम्मेदारी सिर्फ घर तक ही सीमित नहीं रह गयी है , वो एक शिक्षित घरेलु माहौल के साथ साथ , घर के वित्तीय व्यवस्था में भी सामान सहभागी होती है | ऐसे में उसके लिए ये जरूरी हो जाता है कि कम से कम कॉलेज की शिक्षा के साथ एक परिपक्व मानसिकता के साथ अपने बेहतर भविष्य का चयन करे और घर , बच्चे और समाज की तरफ अपनी ज़िम्मेदारियों का वहन करे | बात ये भी है कि माता -पिता के लिए शादी के इस बढ़े उम्र के लिए ग्रेजुएट तक की शिक्षा उसके लिए जरूरी हो जाएगी | सबसे बड़ी बात 18 साल की नाज़ुक आयु में कई शोध बताते है की गर्भाशय तैयार नहीं होता | बच्ची इतने काम आयु में अगर माँ बनती है तो माता और बच्चे दोनों की कोशिकाएं कमजोर रहती हैं . अगर दोनों भगवान् की दया से स्वस्थ्य भी रहते हैं तो एक 18 से 19 वर्ष की बच्ची मातृत्व के बोझ तले दब जाती है जो मानसिक तौर पे माँ और बच्चे दोनों के लिए उचित नहीं है | स्वस्थ्य गर्भाशय और परिपक्व दिमाग ही सम्पूर्ण मातृत्व की कुंजी होती है । क्योंकि मातृत्व बोझ नहीं सुखद अहसास रहना चाहिए | सुप्रीम कोर्ट ने सामाजिक लिंग भेद को मिटाते हुए बेटियों के हक़ में अहम् फैसला दिया है | लिंग का ये भेद सामाजिक रूप से भी ख़त्म होना चाहिए , इसके लिए जरूरी है कि शादी के उम्र में भी ये भेद हटे | आज बेटियों गुड़िया की तरह घर में नहीं बैठी हैं बल्कि हर क्षेत्र में अग्रसर हो कर बेटों के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही हैं समाज में शिक्षा का अलख जगा रही है और मज़बूती के साथ खड़े रहने के लिए शरीर को तपा रही है , ऐसे में जिस शरीर को भगवान् , प्रकृति जो भी कहें उसने दो एक्स्ट्रा ज़िम्मेदारी दी है , जन्म देना और सृजन करना | ये दोनों अहम् ज़िम्मेदारी कम उम्र की हर तरफ से कमजोर व्यक्तित्व के साथ संभालना उनके लिए अपराध जैसा है ।

चित्र Pixabay

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