लोकसभा चुनाव परिणाम और बदले बदले से हालात:डॉ. मोहम्मद अलीम

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डॉ. मोहम्मद अलीम

भारत को त्योहारों का देश कहा जाता है क्योंकि यहाँ सालों भर इस प्रकार का आयोजन होता ही रहता है और हम दिल खोल कर ख़ुशियाँ मनाते और लुटाते भी हैं। हर पाँच साल बाद होने वाला लोकसभा चुनाव भी इसी प्रकार का कौतुहल, ख़ुशियाँ और रोमांच लेकर आता है। ख़ुशी इस बात की होती है कि हम अपनी मौजूदा सरकार के पिछले पाँच सालों का हिसाब किताब माँगते हैं। अगर संतुष्ट होते हैं तो उन्हें सत्ता संभालने का दुबारा मौक़ा देते हैं और अगर असंतुष्ट होते हैं तो उन्हें सत्ता से बेदख़ल करने में हिचकिचाते भी नहीं।लोकतंत्र की यही सबसे बड़ी ख़ूबी है। इस बार का चुनाव भी बहुत गहमागहमी और रोमांच भरा रहा। कई प्रकार की बहसें पिछले तीन चार महीनों से इस प्रकार गरम रहीं कि कुछ और सोचने समझने का मौक़ा ही नहीं मिला। सारी बहसों पर राष्ट्रवाद का मुद्दा हावी रहा। सत्ता पक्ष की पूरी कोशिश यही रही कि पूरे देश में इस बहस को केंद्र में रखा जाए ताकि अन्य ज्वलंत मुद्दों पर जनता की अदालत में ज़्यादा जवाब ना देना पड़े जैसे की बेरोज़गारी का मुद्दा, महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा, ख़राब अर्थव्यवस्था का मुद्दा, महँगाई का मुद्दा इत्यादि। मगर हमारे नेता इस बात को बख़ूबी जानते हैं कि जनता जनार्दन का हृदय कैसे जीता जाता है। और दिल एवं मन की जीत ही बड़ी जीत होती है और भारतीय जनता पार्टी प्रचंड बहुमत हासिल कर के इस बात को समझाने में बख़ूबी कामयाब रही। यह पूरा चुनाव वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हटाओ अभियान पर केंद्रित रहा और विपक्ष ने अपनी पूरी ताक़त इस बात पर झोंक दी कि मोदी को झूठा, मक्कार, चोर और अतिवादी साबित कर की उनको सत्ता से कैसे दूर कर दिया जाए। राफ़ेल और बैंक घोटालों को केंद्र में लाकर इस बहस को गर्माए रखने की पूरी कोशिश की गयी, मगर चुनाव परिणाम ने यह साबित कर दिया की राहुल गांधी और विपक्ष के सारे नेताओं की ओर से किया जाने वाला यह वार पूरी तरह से बे असर साबित हुआ। लोगों ने नरेंद्र मोदी को झूठा और चोर मानने के बजाए एक सच्चे देश प्रेमी के रूप में ना केवल स्वीकार किया बल्कि हृदय से भी लगा लिया। अब तो सारी बहसें बेमानी हो कर रह गयीं हैं। अब केवल यह बहस होनी चाहिए कि देश में अगले पाँच सालों में क्या अच्छा और क्या बुरा होने वाला है।क्या भारत एक सर्व सम्पन्न शक्तिशाली देश की पंक्ति में खड़ा होगा या फिर हम ज़ात पात और धार्मिक बहसों में उलझ कर अपना क़ीमती समय बर्बाद कर देंगे ? अल्पसंख्यक समुदाय का, विशेष कर मुसलमानों का नज़रिया हमेशा से भाजपा के प्रति दुर्भाग्य से नकारात्मक ही रहा है। उसके भी अनेक कारण हैं और सबसे बड़ा कारण है असुरक्षित होने की भावना जिसको अनेक कारणों से बल मिला। हालाँकि सबका साथ सबका विकास एक बड़ा नारा रहा मगर फिर भी माहौल में कोई सकारात्मक परिवर्तन देखने को नहीं मिला। प्रतिपक्ष ने मुसलमानों की इसी कमज़ोरी का फ़ायदा उठा कर हमेशा इस कम्यूनिटी का जम कर शोषण किया। उनकी बुनियादी समस्याएँ पिछले सत्तर साल से ज्यों की त्यों रहीं। मेरा मानना है कि मुसलमानों को भय के इस वातावरण से ख़ुद को निकाल कर भाजपा की इस राष्ट्रवादी सोच का साथ देते हुए उन पर पूरी तरह विश्वास कर उनके भी कार्यकलापों और वादों को परखना चाहिए। अगर वो पीछे हटते हैं तो भिर अगले चुनाव में उनसे भरपूर हिसाब माँगा जा सकता है। और समय बहुत बलवान होता है और दुनिया ने हाल के दिनों में देखा है कि निरंकुश और अतिवादी तानाशाहों का क्या हाल हुआ है। आज उनका नामोनिशान तक बाक़ी नहीं है।

मुसलमानों ने भले ही अपने जेयादतर वोट कोंग्रेस, सपा, बसपा और ऐसे अन्य सेक्युलर दलों को दिया है, मगर यह भी सच है कि इन पार्टियों ने अबतक इनका शोषण ही अधिक किया है।अगर मेरी बात पर भरोसा ना हो तो सच्चर कमिटी की रिपोर्ट पढ़ कर देख लीजिए। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मुसलमानों ने भी भाजपा को अपना वोट देकर यह बताने की कोशिश की है कि वो भी अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करना जानते हैं।अगर ऐसा नहीं होता तो देश के हर कोने से भाजपा और उसके सहयोगी दलों की जीत मुमकिन नहीं हो पाती। कम से कम बिहार में नीतीश कुमार की जीत से तो यह बात पूरी तरह सच साबित होती है।

विपक्षी नेताओं के लिए चुनौतियाँ बढ़ी हैं। उन्हें नकारात्मक हमलों की बजाए सकारात्मक सोच को अपनाना पड़ेगा तभी वो अपने वजूद को बाक़ी रख पाएँगे।

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मोहम्मद अलीम एक राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त लेखक एवं पत्रकार हैं। हाल के दिनों में वाल्मीकि रामायण को आधार बना कर उर्दू में ” इमाम -हिन्द : राम ” नाटक की रचना की है जिसका बड़े पैमाने पर आगामी दिनों में मंचन करने की योजना है।

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