अर्नब बहुत हुआ अब नौटंकी बंद करो…

अतुल गंगवार

वैसे तो बहुत दिनों से टीवी नहीं देख रहा। देख कर भी क्या करूं? कोई भी चैनल देख लें ऐसा लगता है गोया ख़बर नहीं दिखा रहे सब्जी मंडी में सब्जी बेच रहें हैं। तरह तरह के किरदार लगता है अपना संवाद रट कर आयें हैं क्या बोलना है, कैसे बोलना है, कब लड़ना है ये सब तय होता है। मैं कई बार चैनलों पर वरिष्ठ पत्रकार होने के नाते बुलाया जाता रहा हूं। लेकिन मुझे पता है मैं उनकी पहली पसंद नहीं होता क्योंकि मैं जिस तरह से बात रखता हूं उससे टीआरपी नहीं बढ़ती। एक बार मैं एक टीवी चैनल में बहस के लिए बैठा था। मेरे एक तरफ आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता बैठे थे और दूसरी तरफ कॉंग्रेस के। बात शाहीन बाग की चल रही थी, मामला केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच था। दोनों तरफ से बातों के तीर चल रहे थे मैं बीच में था, मामला गर्मा गरम हो गया था हालांकि मैं किसी पार्टी का प्रवक्ता नहीं था लेकिन क्योंकि बात देश की भी हो रही थी तो मैं खामोश ना रह सका। बहस और गर्मा गयी। मेरे अगल बगल बैठे दोनों सज्जन मुस्लिम समुदाय से थे। बहस में सिर्फ ये बाकी था कि वो दोनों मुझे घेर लें पटक कर धरती पर गिरा के मेरे अंग प्रत्यंग का दर्द दूर कर दें। एंकर देखता मामला थोड़ा ठंडा हो रहा है तो चिंगारी में फूंक मार कर शोले भड़का दे। मुझे लगा कि ब्रेक में तो मेरी कुटाई निश्चित है। ब्रेक हुआ मैं थोड़ा सहमा हुआ था। तभी मेरे बायीं और बैठे कांग्रेसी सज्जन ने राहत की सांस भरते हुए कहा कि अब सब ठीक है। बहस में ये सब ना हो तो ये चैनल वाले हमें बुलाते नहीं हैं। उनके विचार सुनने और चेहरे को देखने के बाद मैंने थोड़ी राहत की सांस ली। शो के बाद चाय के दौरान सब ठीक रहा। हां एक बात ओर उस दिन के बाद उस चैनल से मेरे लिए बुलावा नहीं आया।

खैर मैं यहां अपनी कहानी कहने नहीं आया हूं। मेरे एक मित्र ने मुझे अर्नब के शो की एक क्लिप भेजी। इसमें भारत के प्रवक्ता के तौर पर एम एस बिट्टा साहब बैठे हुए थे और पाकिस्तान से इफ्तिखार चौधरी साहब बहस कर रहे थे। मामला गर्म हो रहा था। शायद निपट भी गया होगा। मुझे क्लिप जहां से देखने को मिली उसको देख कर ऐसा ही लग रहा था। तभी अर्नब साहब ने बिट्टा जी को उकसाते हुए कहा… बिट्टा साहब कुछ दिखा रहे थे आप… क्या दिखा रहे थे…फुल स्क्रीन दिखाईये… क्या कह रहे थे बिट्टा साहब और फिर क्या बिट्टा साहब शुरू हो गए… उधर से चौधरी साहब ने जवाब देना शुरू कर दिया। दोनों अपने हाथ में, बिट्टा साहब कार्ड बोर्ड का तीर और चौधरी साहब मिसाइल जैसा कुछ। उन दोनों के बीच जो बात हो रही थी वो कहीं से टेलीविजन की भाषा नहीं थी। चर्चा की भी भाषा नहीं थी। ऐसा लग रहा था कि सड़क पर दो गुंडे लड़ रहे हों। बात देश से, सिक्खों, खलिस्तान पता नहीं कहां कहां तक जाती… दोनों लोग चिल्लाते चिल्लाते हांफने लग गए, लगा कहीं प्राण ना निकल जायें किसी के। तभी अर्नब ने दया करते हुए बातचीत का रूख मोड़ दिया।

अर्नब आप देश के सम्मानित पत्रकार हैं, मेरा आपसे एक सवाल है आपके चैनल पर कोई शख्स देश को, देश के लोगों को गाली देगा और आप चुपचाप सुनते रहेंगे। आपके चैनल की लड़ाई अब बिट्टा साहब लड़ेंगे। आप अपने चैनल पर चुन चुन कर ऐसे लोगों को बैठायेंगे जो कुछ भी बोलेंगे और आप उन्हें नहीं रोकेंगे। ये कब तक चलेगा साहब। किसी पाकिस्तानी की इतनी औकात वह हमारे देश के किसी चैनल पर बैठकर हमें खुलेआम चुनौती दे, गाली दे और आप उसको पूरा सुनाए। जनाब क्यों नहीं चौधरी की चौधराहट को आपने अपनी आवाज से बंद किया। क्यों आप देश की बेइज्जती कराते रहे। क्यों नहीं आपने उस आदमी को तुरंत शो से निकाल बाहर नहीं किया। उसकी आवाज़ बंद की। अर्नब अब इस तरह की टीआरपी की नौटंकी बंद कीजिए। टीआरपी बढ़ाने के ये पैतरे अब चिढ़ाने लगे हैं, नूरा कुश्ती का ये खेल खूब खेलिए लेकिन देश की इज्जत, सम्मान के साथ ना खेलिए। बिट्टा साहब और चौधरी साहब को लड़ना है तो सीमा पर आकर लड़े। आप अगर देश को गाली देने वाले लोगों को अपना मंच देंगे तो ठीक बात नहीं होगी। मेरा आपसे फिलहाल तो अनुरोध है। अपनी टीआरपी के खेल से देश को बाहर रखिए वरना वो दिन दूर नहीं जब आपका खेल आप पर ही भारी पड़ जायेगा।

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